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तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व... 141
के और दूसरों के रोग शान्त हो जाते हैं। यानी हाथ आदि के स्पर्श मात्र से रोगों का निवारण हो जाना, आमर्षोषधिलब्धि कहलाती है।
2. विप्रुडौषधिलब्धि - विप्रुड् का अर्थ है अवयव । मल एवं मूत्र के अवयव विप्रुड् कहलाते हैं । इस लब्धि के प्रभाव से तपस्वी का मूत्र - पुरीष (मल) सुगन्धित और जिसका स्पर्श होने मात्र से रोगी का रोग शान्त हो जाता है ऐसी योग शक्ति को विप्रुडौषधिलब्धि कहते हैं।
3. खेलौषधिलब्धि खेल का अर्थ है श्लेष्म या थूक, औषधि यानी उपचार। इस लब्धि के प्रभाव से साधक का श्लेष सुगन्धित एवं औषध की भाँति रोगशमन में उपयोगी बनता है, अतः इसका नाम खेलौषधिलब्धि है। प्रस्तुत लब्धिधारक मुनि के श्लेष्म में वह शक्ति होती है कि जिसके स्पर्श करने मात्र से रोग समाप्त हो जाते हैं।
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4. जल्लौषधिलब्धि
जल्ल अर्थात शरीर के विभिन्न अवयव जैसेआँख, कान, मुख, जीभ, नाक आदि का मल - पसीना अथवा मैल । जिसके कान, नाक, मुख आदि के मैल को लगाने से रोग शान्त हो जाते हैं, उसे जल्लौषधि लब्धि कहते हैं।
5. सर्वौषधिलब्धि इस लब्धिधारक मुनि का सम्पूर्ण शरीर ही औषधिमय होता है, अतः उसके शरीर के किसी भी अवयव से रोगी का स्पर्श करवाने पर वह रोगमुक्त हो जाता है। इसलिए इसे सर्वौषधि लब्धि कहा गया है। ध्यातव्य है कि प्रथम की चार लब्धियों में शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों के स्पर्श से रोगोपशमन होता है, किन्तु इस लब्धिधारी का समूचा शरीर ही पारस जैसा होता है। वह जहाँ से भी, जिस किसी को छू ले तुरन्त चमत्कार हो जाता है।
6. संभिन्न श्रोतालब्धि इस लब्धि की व्याख्या कई प्रकार से की गयी है। प्रथम अर्थ के अनुसार इस लब्धि को प्राप्त करने वाला साधक शरीर के किसी भी भाग से सुन सकता है । साधारणतया कान से ही सुना जाता है, किन्तु लब्धि के प्रभाव से नाक, जीभ या आँख से भी सुन सकते हैं यानी प्रत्येक इन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय का कार्य कर सकती है। 54
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दूसरे अर्थ के अनुसार साधारणतः एक इन्द्रिय एक ही कार्य कर सकती है जैसे- आँख देख सकती है, जीभ स्वाद ले सकती है किन्तु तपस्या के प्रभाव