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तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...135
प्रतिदिन जिनेश्वर परमात्मा की त्रिकाल (प्रात:, मध्याह्न व संध्या) पूजा करना, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ का सम्मान करना, स्वाध्याय करना, विधिपूर्वक गुरु की सेवा करना, यथाशक्ति दान देना, आवश्यक क्रिया (षडावश्यक) करना, यथाशक्ति व्रतों का पालन करना, श्रेष्ठ तप का आचरण करना और शास्त्र पाठों का स्मरण करना यह जिनागमों में कहा गया श्रावक धर्म है।
गृहस्थ के दैनिक छ: कर्म बतलाये गये हैं। वहाँ भी तप धर्म को सन्निविष्ट किया गया है, इसके लिए निम्न पाठ अवलोकनीय है
देवपूजा गुरुपास्तिः, स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने-दिने।। तीर्थङ्कर भगवान की पूजा करना, गुरु की सेवा करना, स्वाध्याय करना, संयम पालन करना, तप करना और दान देना- ये गृहस्थों के छः नित्यकर्म हैं।
गृहस्थ रात्रिक प्रतिक्रमण करते हुए उसमें छहमासी तप का कायोत्सर्ग करते हैं। यदि वैसा चिन्तन नहीं कर सकते हैं तो चिन्तन कायोत्सर्ग के रूप में 'लोगस्ससूत्र' का स्मरण करते हैं। यदि यह पाठ भी न आता हो तो सोलह अथवा अड़तालीस नवकार मन्त्र गिनने की प्रवृत्ति है। वस्तुतः छहमासी तप का चिन्तन निम्न प्रकार से करना चाहिए
भगवान महावीर ने छह मास का तप किया था। हे चेतन! तुम यह तप कर सकते हो? यहाँ मन में ही उत्तर देते हुए चिन्तन करना कि मेरी न वैसी शक्ति है और न ही वैसा परिणाम। पश्चात अनुक्रम से एक-एक उपवास कम करते हुए विचार करना, ऐसा करते हुए पांच मास, चार मास, तीन मास, दो मास, एक मास तक मन को स्थिर करना। फिर एक दिन कम मासक्षमण, दो दिन कम मासक्षमण, इस भाँति तेरह दिन न्यून सत्रह उपवास का विचार करना। फिर हे चेतन! तुम चौंतीस भक्त (सोलह उपवास) करो, बत्तीस भक्त करो, तीस भक्त करो। इस तरह दो-दो भक्त कम करते हुए चतुर्थ भक्त अर्थात उपवास तक चिन्तन करना। यदि उपवास करने की भी शक्ति न हो तो अनुक्रम से आयंबिल, नीवि, एकासन, बीयासन, अवड्ड, पुरिमड्ड, साढ पौरुषी, पौरुषी और नवकारसी तप पर्यन्त विचार करना। तप चिन्तन करते समय जहाँ तक तप करने की शक्ति हो उस सम्बन्ध में यह सोचना कि “शक्ति है किन्तु परिणाम नहीं है" तदनन्तर