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________________ तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...119 समय में 'निर्ग्रन्थ धर्म' या 'श्रमण धर्म' कहलाता था। जैन आगमों से ज्ञात होता है कि प्राचीन युग में भगवान महावीर को 'जैन मुनि' नहीं, किन्तु स्थान-स्थान पर 'निग्गंथे नायपुत्ते” अथवा “समणे भगवं महावीरे'' इन्हीं विशेषणों से पुकारा गया है। इससे यह पता चलता है कि पूर्वकाल में जैन मुनियों को निर्ग्रन्थ और श्रमण कहा जाता था। भगवान महावीर ने साधु के चार नाम बताये हैं24 माहणे त्ति वा, समणे त्ति वा । भिक्खु त्ति वा, निग्गन्थे त्ति वा ।। इन नामों का विश्लेषण करते हुए वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने कहा हैकिसी भी प्राणी की हिंसा न करने की जिसकी प्रवृत्ति है वह माहन कहलाता है। जैसा कि मूल पाठ है - "माहण त्ति प्रवृत्तिर्यस्याऽसौ माहनः।" जो शास्त्र की नीति एवं मर्यादा के अनुसार "यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिक्षुः।" तप साधना करता हुआ कर्म बन्धनों का भेदन करता है, वह भिक्षु है।25 आचार्य भद्रबाहु के अनुसार "जो भिंदेइ खुहं खलु सो भिक्खू भावओ होइ।" जो मन की भूख अर्थात तृष्णा एवं आसक्ति का भेदन करता है, वही भाव रूप में भिक्षु है।26 निम्रन्थ की परिभाषा करते हुए बताया गया है कि "निग्रतो ग्रंथाद निम्रन्थः।" जो ग्रन्थि यानी गांठ से रहित है, वह निर्ग्रन्थ है।27 ___ श्रमण को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि "श्राम्यति तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणः" अर्थात जो तपस्या के द्वारा शरीर को खेद-खिन्न करता है वह श्रमण है।28 यहाँ 'श्रमण' शब्द को विश्लेषित करने का अभिप्राय यह है कि उसे जैनागमों में तपस्वी का वाचक और प्रतीक माना गया है। जैन धर्म की यह गौरवमयी परम्परा श्रमण के बल पर ही प्रवर्तित है। यदि श्रमण जैसा साधक मौजूद न हो तो तप धर्म ही क्या, जैन धर्म भी जीवन्त नहीं रह सकता। जैन श्रमण का साधना मन्त्र ही तप होता है। __ जैन धर्म के ऐतिहासिक ग्रन्थों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि यहाँ जितने भी महापुरुष हुए हैं उन सभी ने तप द्वारा उच्च पद को प्राप्त किया
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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