________________
तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व...109
इस विषय में यह तथ्य भी विचारणीय है कि तप यदि नैतिक जीवन की एक अनिवार्य प्रक्रिया है तो उसे किसी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिए।
जैन साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है, आत्म शुद्धिकरण है। लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है ? जैन दर्शन मानता है कि प्राणी मानसिक, वाचिक एवं कायिक क्रियाओं के माध्यम से कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों को अपनी ओर आकर्षित करता है और ये आकर्षित कर्म-वर्गणाओं के पुद्गल राग-द्वेष या कषाय-वृत्ति के कारण आत्मा से एकीभूत हो, उसकी शुद्ध सत्ता, शक्ति एवं ज्ञान ज्योति को आवृत्त कर देते हैं। अतः शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि के लिए आत्मा के शुद्ध स्वरूप को आवृत्त करने वाले कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों का पृथकीकरण आवश्यक है। पृथकीकरण की यह क्रिया निर्जरा कही जाती है, जो दो रूपों में सम्पन्न होती है। जब कर्म वर्गणा के पुद्गल अपनी निश्चित समयावधि के पश्चात अपना फल देकर स्वत: अलग हो जाते हैं तो यह सविपाक निर्जरा कहलाती है और जब प्रयास पूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा से अलग किया जाता है तो उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं तथा जिस प्रक्रिया के द्वारा अविपाक निर्जरा की जाती है, वही तप है। इस प्रकार प्रयास पूर्वक कर्म पुद्गलों को आत्मा से अलग कर उसके स्वरूप को प्रकट कर देना ही तप का प्रयोजन है। ___ दशवैकालिकसूत्र में आचार्य शय्यंभव ने तप समाधि का उद्देश्य बतलाते हुए स्पष्ट कहा है कि 1. इहलोक (वर्तमान जीवन की भोगाभिलाषा) के निमित्त तप नहीं करना
चाहिए। 2. परलोक (पारलौकिक भोगाभिलाषा) के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। 3. कीर्ति, रूप, शब्द और प्रशंसा के लिए तप नहीं करना चाहिए। 4. निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए।
तप का मुख्य फल निर्जरा है। जैसे- अग्नि सोने को शुद्ध करती है, फिटकरी मैले जल को निर्मल बनाती है, सोड़ा या साबुन मलिन वस्त्र को उज्ज्वल बनाता है, उसी प्रकार तप आत्मा को शुद्ध, निर्मल और उज्ज्वल रूप प्रदान करता है।