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तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व... 107
शुद्ध एवं प्रचण्ड रूप में प्रकट हो जाती हैं जैसे- किसी स्वर्णपट्ट पर मिट्टी की तह जमी हुई हो तो सोने की चमक दिखाई नहीं देती, किन्तु जैसे-जैसे मिट्टी हटती है सोना चमकने लगता है। वैसे ही कर्म रूप मिट्टी जैसे-जैसे हटती है आत्मा की शक्तियाँ अनावृत्त होने लगती हैं।
आत्मशक्ति के रूप में ये शक्तियाँ आभ्यन्तर होती हैं, किन्तु उनका प्रभाव,चमत्कार बाह्य जगत में दिखाई देता है। इन शक्तियों के सहज विकास एवं सामयिक प्रयोग से बाह्य वातावरण एवं समाज पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है इस कारण उन शक्तियों को लब्धि आदि के रूप में तप का बाह्य फल माना गया है।
जैसे- पौष्टिक भोजन करने पर शरीर में शक्ति और स्फूर्ति बढ़ती है तो रक्त और मांस भी बढ़ता है। भीतर में शक्ति बढ़ने पर बाहर में ओज - तेज जिस प्रकार दिखाई देता है उसी प्रकार तप के द्वारा तेज प्रकट होता है, तो वह बाहर में स्वतः ही अपना प्रभाव दिखाने लगता है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा "सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो"
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तप का विशिष्ट प्रभाव संसार में साक्षात दिखाई देता है। राजस्थान में कहावत है - "घी खायो छानो को रैवेनी" घी खाया हुआ छिपता नहीं है वैसे ही तप किया हुआ भी छुपता नहीं है। तपस्वी के चेहरे पर स्वतः ही एक विशिष्ट तेज-ओज दमकने लगता है। उसकी वाणी में सिद्धि, प्रसन्नता में वरदान तथा आक्रोश में शाप की शक्ति अपने आप आ जाती है, इन शक्तियों के लिए उसे प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब लब्धियों (आत्मगत विशिष्ट शक्तियों) के लिए तप करने की आवश्यकता नहीं है तो शास्त्रों में भिन्न-भिन्न लब्धियों के लिए अलग-अलग प्रकार की तपस्याएँ क्यों बतायी गयी हैं ? जैसेभगवतीसूत्र में तेजोलेश्या की साधना - विधि बतायी गयी है, जंघाचारणविद्याचारण की भी साधना विधि कही गयी है तथा पूर्वों में लब्धियों की विभिन्न साधना-पद्धतियों का वर्णन उपलब्ध था, ऐसा उल्लेख किया जाता है तो इसका क्या अर्थ है? जब लब्धि के लिए तप नहीं किया जाना चाहिए तो फिर उसके लिए तप की विधि क्यों ?
इस प्रश्न का जवाब यह है कि लब्धि एक अतिशय है, एक प्रभाव है, साधक अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कभी उत्सुक नहीं होता । भाव बढ़ता है तो