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104...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
प्रस्तुत विषय को स्पष्ट करने के लिए यह भी कहा जा सकता है कि जैसेमन्त्री विहीन राज्य, शस्त्र विहीन सेना, नेत्र विहीन मुख, वर्षा विहीन चातुर्मास, उदारता विहीन धनिक, घृत विहीन भोजन, शील विहीन स्त्री और सहृदयता विहीन मित्र प्रशंसा योग्य नहीं होता है, वैसे ही तप विहीन धर्म भी प्रशंसा को प्राप्त नहीं होता है।
जिस प्रकार लौकिक जगत में स्वर्ण की परीक्षा निर्घर्षण, छेदन, ताप और ताडन आदि चार क्रियाओं द्वारा होती है, उसी तरह अध्यात्म जगत में धर्म की परीक्षा श्रुत, शील, तप और दया आदि गुणों से होती है। इस उदाहरण को अधिक स्पष्ट समझना चाहें तो जैसे- स्वर्ण को सबसे पहले कसौटी के पत्थर पर घिसकर देखा जाता है कि यह कितना खरा है? यदि उससे ठीक मालूम होता है तो फिर शस्त्र से छेदकर देखते हैं कि यह अन्दर से कैसा है? यदि किसी ने ऊपर से स्वर्ण चढ़ा दिया हो और भीतर में पीतल या हल्की वस्तु हो तो इस परीक्षा से सही ज्ञान हो जाता है। इस परीक्षा में सोना ठीक उतर जाये तो फिर तपाकर देखते हैं कि इसका वर्ण तो परिवर्तित नहीं हुआ है? यदि सोना कृत्रिम हो तो तपाने से उसका रंग बहुत अंश में बदल जाता है। यदि इस परीक्षा में सोना ठीक निकल जाये तो उसे टीपकर (ठोककर) देखते हैं कि इसका चिकनापन कैसा है? कृत्रिम सोना में चिकनापन नहीं होता है। इस अन्तिम परीक्षा में खरा उतरने वाले सोने को ही सच्चा मानकर ग्रहण किया जाता है।
विद्वद् पुरुष धर्म की परीक्षा भी इसी तरह करते हैं। सर्वप्रथम धर्म का श्रुत देखते हैं अथवा तत्धर्म सम्बन्धी शास्त्रों का अवलोकन करते हैं कि कितने प्रामाणिक हैं? रचयिता कौन है? आदि। सर्वज्ञ महापुरुषों द्वारा रचित ग्रन्थों को प्रामाणिक माना जाता है। उसके पश्चात धर्मशास्त्रों में संयम और सदाचार का निरूपण किस प्रकार का है, वह देखते हैं। तदनन्तर धर्म में तप के ऊपर कितना महत्त्व दिया गया है, उसका परीक्षण करते हैं। यदि तप का प्रभाव दिखता है तो उसे उत्तम मानते हैं अन्यथा सत्त्व रहित जानकर उपहास करते हैं। फिर अन्तिम में दया, दान, परोपकार आदि गुणों की चर्चा की गयी हो तो उसे श्रेष्ठ समझकर स्वीकार करते हैं।
इस वर्णन से सिद्ध होता है कि साधारण एवं धर्मयुक्त जीवन में तप की आवश्यकता अपरिहार्य है।