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अध्याय-3
तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व
वर्तमान युग में प्राचीन सांस्कृतिक एवं धार्मिक विधानों को Out dated और Unimportant माना जाता है। कई लोगों का मानना है कि प्राच्य संस्कृति सम्बन्धी नियमोपनियम उसी काल की अपेक्षा प्रासंगिक थे। तप भी ऐसा ही एक प्राचीन विधान माना जाता है । परन्तु यदि गहराई से विचार करें तो आज भले ही तप साधना के नियम अप्रासंगिक लगते हो पर Dieting, Jogging आदि उसी के बदले हुए रूप है। इसी अध्याय के अन्तर्गत ऐसे ही अनेक परिप्रेक्ष्य में तप की महत्ता एवं आवश्यकता बताई जा रही है।
तप साधना की आवश्यकता क्यों?
किसी भी व्यक्ति के मन में यह प्रश्न उठना सहज है कि जब सभी धर्मों में आत्म विकास और भाव विशुद्धि के लिए अनेक प्रकार के उपाय बतलाये गये हैं, वहाँ कई विशिष्ट मार्गों का प्रतिपादन हैं फिर भी तपश्चर्या को सर्वोत्तम स्थान क्यों दिया गया ? आखिर साधकीय जीवन में तपोयोग क्यों आवश्यक है ?
इस बिन्दु पर अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि धर्म तप रूप है, बिना तप का धर्माचरण अधूरा तथा धर्म बिना का जीवन पशु तुल्य माना गया है, अतः तप की प्राथमिकता सदा-सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है।
यह मननीय है कि अहिंसा धर्म रूपी मन्दिर की मूल नींव है, संयम धर्म रूपी मन्दिर की दीवार है और तप धर्म रूपी मन्दिर का शिखर है। दूसरे शब्दों में कहें तो अहिंसा से धर्माचरण की शुरुआत होती है, संयम से धर्म का आचरण आगे बढ़ता है और तप से धर्म आचरण पूर्ण होता है ।
जिस प्रकार दांत रहित हाथी, वेग रहित घोड़ा, चन्द्रमा रहित रात्रि, सुगन्ध रहित पुष्प, जल रहित सरोवर, छाया रहित वृक्ष, लावण्य रहित रूप और गुण रहित पुत्र शोभा नहीं पाता है उसी प्रकार तप शून्य धर्म शोभा नहीं पाता है ।