________________
xlviii... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
सन्दर्भित है। इस विधि के द्वारा बाह्य आभ्यन्तर समस्त प्रकार की अशुचि को दूर किया जाता है।
प्रस्तुत अध्याय में कल्पत्रेप का अर्थ, कल्पत्रेप किस दिन करें ? कल्पत्रेप हेतु सामाचारी बद्ध नियम, किन स्थितियों में कल्पत्रेप करें ? इत्यादि विषयों का सम्यक निरूपण किया गया है।
इस कृति में योगोद्वहन सम्बन्धी पारिभाषिक एवं सांकेतिक शब्दों के विशिष्टार्थ एवं रहस्यार्थ भी बताए गए हैं जिससे शोध प्रबन्ध की मौलिकता शतगुणित हुई है।
यद्यपि इस विषय पर लेखनी चलाने का अधिकार आचार्यों एवं रत्नाधिक मुनियों को ही है, फिर भी शोध का अन्तर्गत विषय होने से यत्किंचिद् लिखने का क्षम्य प्रयास किया है। विषय की दुर्गमता, मार्गदर्शन की दुर्लभता, साधु जीवन की मर्यादा एवं अनुभवी सहायकों की अल्पता के कारण यह कृति सर्वतोभद्र या शत-प्रतिशत पूर्ण तो नहीं बन पाई है परंतु यथाशक्य प्रयासों के द्वारा इसे अधिकाधिक पूर्णता देने की कोशिश की है।
इस कृति को प्रमाणभूत बनाने एवं समय - समय पर यथासंभव मार्गदर्शन देने हेतु मैं अन्तस् भावों से आभारी हूँ बेजोड़ शासन प्रभावक पूज्य आचार्यश्री कीर्तियशसूरिजी म.सा. एवं उनके अनन्य सहयोगी, आगमविद् शिष्यरत्न मुनि श्री रत्नयशविजयजी म.सा. के प्रति, जिन्होंने अपने अमूल्य निर्देशन एवं निरीक्षण के साथ अपेक्षित सुधार करके अनेक दुरूह विषयों को सुगम बनाकर इस कृति को सर्वग्राह्य बनाया।
यह रचना मूल शास्त्रों के सम्यक ज्ञानार्जन में, योगोद्वहन रूपी आगमिक क्रिया के समाचरण में, गूढ़ रहस्यमयी जिनवाणी के अनुशीलन में एवं श्रुत पिपासा के जागरण में मेढ़ीभूत आलंबन बनते हुए योगोद्वहन जैसे दुष्कर विषय को सर्वजन सुलभ बनाएँ। साथ ही ज्ञान, ज्ञानी एवं ज्ञानार्जन के प्रति सम्मान भाव का वर्धन करने में सहायक बनें इन्हीं मंगल भावों के साथ
आगम विरुद्ध अथवा जिनवाणी के विपरीत कुछ भी लिखने में आया हो अथवा किसी भी विषय का बोधगम्य स्पष्टीकरण न किया हो, शास्त्र अभिप्राय के विरुद्ध कुछ भी लिखा हो तो त्रिविध- त्रिविध मिच्छामि दुक्कडम्।