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________________ अनुभूति की ऊर्मियाँ जैनागमों में मुख्यतया दो प्रकार का धर्म बतलाया है - श्रुतधर्म और चारित्रधर्म। श्रुतधर्म के पालन द्वारा शास्त्रज्ञान एवं वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का निश्चय होता है और चारित्रधर्म के सम्यक् अनुपालन से साध्य रूप परमात्म तत्त्व की उपलब्धि होती है। योगोद्वहन इन दोनों धर्मों के क्रियान्वयन का सम्मिश्रित अनुष्ठान है। इसके माध्यम से श्रुत (ज्ञान) एवं चारित्र (क्रिया) उभय धर्म का युगपद अभ्यास किया जाता है। योगोद्वहन एक ऐसी सुप्रशस्त प्रवृत्ति है जो निवृत्ति मार्ग पर बढ़ने में सहायक बनती है। सिद्धान्ततः चारित्र धर्म में द्वादशविध तप, बारह भावना, सत्रह संयम, क्षमा आदि दशविध धर्म और समिति - गुप्ति रूप अष्टप्रवचन माताएँ आदि आचरणीय धार्मिक क्रियाएँ गर्भित हैं। इनमें सभी प्रकार के योगों का भी समावेश हो जाता है। सामान्यतया मन-वचन-काया के व्यापार को योग कहते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में मन-वचन-कर्म का आत्मा के साथ मिल जाना और आत्मानुकूल प्रवृत्ति करना योग है। अध्यात्म, योग में विश्वास करता है जबकि विज्ञान प्रयोग में विश्वास करता है। वस्तुतः योग किसी दर्शन या परम्परा से प्रतिबंधित प्रक्रिया नहीं है वह तो आत्मविद्या है, अध्यात्मविद्या है, स्वयं से स्वयं को जानने की विद्या है। भारत देश के ऋषि- महर्षियों ने विशिष्ट साधना के बल पर इसे प्रकट किया है। यद्यपि दर्शन या परम्परा के साथ 'योग' यह नाम जुड़ा हुआ है जैसेजैन योग, बौद्ध योग, वैदिक योग आदि। ध्यातव्य है कि योग साधना की कई अनुभूत विधियाँ है। इनका लक्ष्य प्राय: समान होने पर भी साधना क्रम एवं विधि प्रक्रिया में भेद होने के कारण इनका अस्तित्व परम्परा विशेष के साथ जुड़ गया है। वस्तुत: यह अन्तर्मुखी साधना है। सभी परम्पराओं में इसे प्रमुखता दी गई है । पातंजलयोगसूत्र (हिन्दू धर्म) में हठयोग, प्राणायाम आदि को योग के अन्तर्भूत स्वीकार किया है। बौद्ध धर्म में ध्यान साधना को योग से सम्पृक्त माना है। जैन धर्म के योग सम्बन्धी ग्रन्थों में योग के पाँच प्रकार कहे गये हैं
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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