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परिशिष्ट... 399
आचारदिनकर के अनुसार पूर्ववत श्रुतस्कन्ध के उद्देशादि दिनों में आयंबिल और शेष दिनों में आयंबिल + नीवि के क्रम से तप करना चाहिए । वर्तमान तपागच्छ परम्परा में इसी क्रम से योग तप किया जाता है।
महानिशीथसूत्र के योग में केवल आयंबिल होता है। सामान्य सूत्रों के योग तप में अष्टमी, चतुर्दशी एवं शुक्ला पंचमी को आयंबिल ही किया जाता है। वैसे ही संवत्सरी को उपवास किया जाता है।
आराधना- यह शब्द आ + राध् धातु से सिद्ध है। यहाँ 'आ' उपसर्ग मर्यादा अर्थ में है और 'राध्' धातु रांधने के अर्थ में है। जिससे पेटपूर्ति रूप कार्यसिद्धि हो वह राधना कही जाती है। इस प्रकार ज्ञानी की निश्रा, आज्ञा की प्रधानता, विनय आदि मर्यादापूर्वक जो हो, वह आराधना कहलाती है।
अंग प्रविष्ट - यथार्थदृष्टा अरिहंत परमात्मा द्वारा प्ररूपित वाणी एवं त्रिपदी (उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य) के सिद्धान्तों से निष्पन्न शाश्वत सूत्र जो कि गणधरों द्वारा रचित है, उन्हें अंगप्रविष्ट कहते हैं।
अंग बाह्य- आचार्य भद्रबाहु स्वामी आदि स्थविरों द्वारा रचित एवं मोक्ष का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र अनंगप्रविष्ट कहलाते हैं।
अनध्याय काल - शास्त्र अध्ययन या स्वाध्याय हेतु निषिद्ध काल । अभिशय्या - जिस स्थान पर स्वाध्याय करने के पश्चात रात्रि विश्राम कर सुबह पुनः वसति में लौट सकते हैं।
नैषेधिकी भूमि - वह स्थान जहाँ सूत्र - अर्थ का स्वाध्याय किया जा सकता है और स्वाध्याय करने के पश्चात वहाँ से वसति में लौट सकते हैं।
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नित्थार पारगा होह - 'संसार सागर से पार होवो' यह वाक्य पद गुरु द्वारा शिष्य के लिए आशीर्वचन के रूप में बोला जाता है ।
व्याघात काल- संध्याकाल अथवा मुनि की वसति में अधिक कोलाहल होने पर स्वाध्याय हेतु निषिद्ध एक प्रकार का काल । इसे प्रादोषिक काल भी कहते हैं।
प्रादोषिक काल - सूर्यास्त के बाद से लेकर रात्रि के प्रथम प्रहर का
समय।
अर्द्धरात्रिक काल- अर्द्धरात्रि का समय या रात्रि का दूसरा प्रहर । वैरात्रिक काल - रात्रि के तीसरे प्रहर का समय ।