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कल्पत्रेप-विधि का सामाचारीगत अध्ययन ...387
यह विधि देखने को नहीं मिलती है। सम्भवत: परम्परागत आम्नाय से प्रतिबद्ध होने के कारण इसकी मौखिक प्रवृत्ति विद्यमान रही होगी। ____ हमें प्रस्तुत विधि का उल्लेख सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा में प्राप्त होता है। आचार्य जिनप्रभसूरि ने इस सामाचारी का निरूपण विस्तार के साथ किया है।10
यदि तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो आचारदिनकर में इसका नामोल्लेख मात्र है तथा सामाचारी शतक में विधिमार्गप्रपा का ही कुछ अंश यथावत उद्धृत किया गया है।11 इन तीन ग्रन्थों के अतिरिक्त यह विधि या इसका नामोल्लेख मूल रूप से कहीं भी पढ़ने में नहीं आया है परन्तु वर्तमान की संकलित कृतियों में सज्झाय उत्क्षेपण एवं सज्झाय निक्षेपण विधि का उल्लेख है तथा खरतरगच्छ आदि कुछ परम्पराओं में यह विधि आज भी प्रचलित हैं। .. कल्पत्रेप आचारशुद्धि की शास्त्रविहित प्रक्रिया है। इसके द्वारा द्रव्य रूप से स्थान, वस्त्र, पात्र आदि की शुद्धि की जाती है परंतु भावरूप से मुनि के पंचाचार की शुद्धि एवं प्रमाद, अविवेक, अविरति आदि को न्यन किया जाता है। साध्वाचार सम्बन्धी कल्पों का पालन करते हुए निर्दोष श्रमण जीवन का आनंद अनुभूत किया जाता है। यह अध्याय आचार संहिता के पालन में हेतुभूत बने एवं ज्ञानार्जन के मार्ग पर अग्रसर करें यही हार्दिक प्रयास है। सन्दर्भ-सूची 1. विधिमार्गप्रपा-सानुवाद, पृ. 182 2. वही, पृ. 182 3. पाइयसद्दमहण्णवो, पृ. 222, 437 4. विधिमार्गप्रपा, पृ. 182 5. वही, पृ. 182 6. वही, पृ. 182 7. स्वाध्याय माला, संपा. मणिप्रभसागर, पृ. 107-109 8. (क) विधिमार्गप्रपा, पृ. 183
(ख) स्वाध्याय माला, पृ. 106 9. विधिमार्गप्रपा, पृ. 184-186 10. सामाचारी शतक, पृ. 154 11. कल्पसूत्र सामाचारी अधिकार