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________________ अध्याय-7 कल्पत्रेप विधि का सामाचारीगत अध्ययन कल्पत्रेप, योगवाही मुनियों का आवश्यक अनुष्ठान है। विधिमार्गप्रपा में कहा गया है कि 'जोगाय कप्पतिप्पं विणा न वहिज्जति'- योगोद्वहन (तप पूर्वक आगम सूत्रों का अध्ययन) कल्पत्रेप के बिना वहन नहीं किया जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि कल्पत्रेप क्रिया करने के पश्चात ही योगोद्वहन में प्रवेश करना चाहिए। विधिमार्गप्रपाकार ने इस सम्बन्ध में यह भी निर्दिष्ट किया है कि यह क्रिया मुख्य रूप से प्रत्येक छह महीने के अन्तराल में अर्थात वैशाख शुक्ला एवं कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा के अनन्तर किसी भी शुभ दिन में करनी चाहिए अतः इसे 'छहमासिक कल्प उत्तारण विधि' भी कहते हैं।2। __सामान्य रूप से वस्त्र, पात्र, स्थान, शरीर आदि की शुद्धि करना कल्पत्रेप है और उत्सर्गत: पंचाचार की शुद्धि करना कल्पत्रेप है। जिस क्रिया विशेष से बाह्य शुद्धि पूर्वक दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं तप की शुद्धि होती हो, वह कल्पत्रेप है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इसमें प्रतिपद्यमान वसति-पात्र आदि की प्रत्येक शुद्धि छह माह के पश्चात तो करनी ही चाहिए, किन्तु छह महीने के भीतर भी तत्सम्बन्धी कोई कारण उपस्थित हो जाए तो उसकी शुद्धि उस समय ही कर लेनी चाहिए, जैसे अपान आदि की शुद्धि प्रतिदिन की जानी चाहिए। कल्पत्रेप शब्द का अर्थ विमर्श कल्पत्रेप शब्द दो पदों के योग से निष्पन्न है। प्राकृत हिन्दी कोश में कल्प और त्रेप के निम्न अर्थ किए गए हैं कल्प अर्थात करना, ग्रहण योग्य, प्रक्षालन, आचार, व्यवहार, उचित, अनुष्ठान, शास्त्रोक्त विधि आदि। त्रेप अर्थात तृप्त करना, झरना, चूना, संतुष्ट, अपान आदि धोने की क्रिया। इन नामों के आधार पर यहाँ तीन अर्थ घटित होते हैं
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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