________________
258... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण करने निमित्त कायोत्सर्ग करता हूँ। पुन: एक खमासमण देकर कहें- 'त्रांबा त्रउआ, सीसा, कांसा, सोना, चाँदी, अस्थि, चर्म, रूधिर, नख, दंत, बाल, विष्टा, लादि इच्चाइ ओहडावणियं करेमि काउस्सग्गं' पूर्वक अन्नत्थसूत्र बोलकर एक नमस्कार मन्त्र का कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग पूर्णकर प्रकट में नमस्कार मन्त्र बोलें। फिर किसी तरह की अविधि या आशातना हुई हो, तो उसका मिथ्यादुष्कृत दें।
तपागच्छ परम्परा में प्रचलित पवेयणाविधि इस प्रकार है 77- पूर्ववत वसति शोधन, ईर्यापथ प्रतिक्रमण, वसति प्रवेदन, मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन और पवेयणा का आदेश लें। फिर खमा. इच्छकारी भगवन्! तुम्हे अम्हं...श्रुतस्कंधे... अध्ययने... (उद्देसावंणी समुद्देसावणी अणुजाणावणीजो क्रियाएँ कर ली गई हों उन सभी का नामोच्चारण करते हुए) वायणा संदिसावणी, वायणा लेवरावणी, कालमांडला संदिसावणी,कालमांडला पडिलेहावणी, सज्झाय पडिक्कमणावणी,पाभाइयकाल पडिक्कमणावणी, संघट्टो (आउत्तवाणय) लेवावणी, जोगदिन पईसरावणी पाली तप (पारj) करशुं। गुरु- करजो। फिर गुरु मुख से प्रत्याख्यान ग्रहण करें। दो खमासमण द्वारा बैठने का आदेश लें। तदनन्तर पूर्ववत संघट्टा और आउत्तवाणय ग्रहण करें। __समीक्षा- प्रवेदन, योगवाहियों का दैनिक कर्म है तथा योगर्या का अभिन्न अंग है। यदि इस अनुष्ठान के सम्बन्ध में ऐतिहासिक अनुसंधान किया जाय तो विक्रम की दूसरी शती से 16वीं शती पर्यन्त के वैधानिक ग्रन्थों में इसका स्वरूप स्पष्टत: देखने को मिलता है। यद्यपि इस विषय में आचार्यों में मतभेद हैं। यही कारण है कि विधिमार्गप्रपादि ग्रन्थों में यह विधि सामान्य अन्तर के साथ प्राप्त होती है। इनमें मुख्य अन्तर आलापक पाठों की संख्या एवं उनके क्रम को लेकर है। तपागच्छ आदि परम्पराओं में 'तुम्हे अम्हं-सुअक्खंधे... से लेकर पाली पारणुं करशुं' पर्यन्त का पाठांश तिलकाचार्य सामाचारी एवं आचार दिनकर का अनुसरण करते हुए जिनसामाचारी के आधार पर दिया गया है तथा 'पाडीवारणउं करिसउं' के स्थान पर 'पालीपारणुं करशुं' पद उद्धृत किया गया है। देश-कालगत परिवर्तनों में भाषा स्वरूप भी बदलता है। तिलकाचार्य एवं सबोधासामाचारी में उल्लेखित 'पाउंछणं' शब्द पादपोंछन का वाच्यार्थ होने पर भी विक्रम की 14वीं शती तक आते-आते यह बैठने के अर्थ में रूढ़ हो गया, अतएव इस शती से ‘पाउंछणं' के स्थान पर 'बइसणं' या