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अन्तस् नाद
योगोद्वहन- अध्यात्म परम्परा का महत्त्वपूर्ण क्रियानुष्ठान है। योग + उद्वहन इन दो पदों के संयोग से यह शब्द निष्पन्न है। योग अर्थात मन-वचनकाया की शुभ प्रवृत्ति, उद्वहन अर्थात ऊर्ध्वगामी बनाना, ऊपर की ओर उठना। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परानुसार मन-वचन-काया की एकाग्रता एवं विशिष्ट तप पूर्वक आगम शास्त्रों का अध्ययन करना योगोद्वहन है।
अतीतकाल से योग शब्द आत्म विकास का द्योतक रहा है। साधारणत: मानव जीवन में शरीर और आत्मा ये दो तत्त्व प्रधान हैं। शरीर स्थूल है और आत्मा सूक्ष्म है। शरीर का विकास सात्विक पदार्थों के सेवन तथा उचित व्यायाम आदि से होता है, किन्तु आत्मा का विकास योग से होता है।योग की शुभाशुभ प्रवृत्ति ही क्रमशः मुक्ति गमन एवं संसार सर्जन का कारण बनती है।
अवंचक योग-निर्वाण प्राप्ति का अनन्तर कारण है। योगोद्वहन का अन्तरंग पक्ष इसी तथ्य पर आधारित है। इस तरह योगोद्वहन एक कठिन एवं जटिल विषय है परन्तु श्रुतोपासिका, ज्ञान आराधिका सौम्यगुणाजी ने इस हेतु अनेक आचार्यों एवं मुनि भगवंतों से विचार-विमर्श करके ही अपनी लेखनी चलाई है। इस विषय में आचार्य भगवंत पूज्य कीर्तियश सूरीश्वरजीजी म.सा. के अन्तेवासी प्रज्ञाशील, उत्कृष्ट संयम साधक, पूज्य रत्नयश विजयजी म.सा. ने इस कृति के आद्योपरान्त परिशीलन में अपना अमूल्य समय एवं योगदान भी दिया है जिससे इसकी प्रामाणिकता एवं श्रेष्ठता को अधिक बल मिला है। उनकी इस उदार हृदयता, सहयोग भावना एवं उत्कर्ष वृत्ति का समस्त जैन समाज सदा आभारी रहेगा। ___ साध्वीजी स्वयं श्रुत पिपासु एवं योगवाहिका है। सज्जन मण्डल यह अभ्यर्थना करता है कि इनकी उच्च कल्पना, विचारशक्ति, रहस्य शोधक बुद्धि एवं त्रियोग मग्नता उनके सर्व कार्यों को सम्यक् सिद्धि प्रदान करें तथा श्रुत संवर्धन में सहायक बने ऐसी हृदयाभिलाषा के साथ।