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योगोद्वहन : एक विमर्श ... 159
154. योगवाही स्वयं कालग्राही और दांडीधर की भूमिका वहन कर सकता है। 155. जिस दिन गणि, उपाध्याय या आचार्य आदि पदोत्सव हो उस दिन पदानुज्ञा के निमित्तं पददाता गुरु एवं पदग्राही शिष्य दोनों प्राभातिक काल ग्रहण करते हैं।
156. सामाचारी के अनुसार प्राभातिक काल ग्रहण सूर्योदय से पूर्व कर लेना चाहिये, अन्यथा कालग्रहण नष्ट हो जाता है ।
157. आश्विन - चैत्र मास में नवपद ओली के 11 या 12 दिन तथा आषाढ़ी, कार्तिकी एवं फाल्गुनी इन तीनों चातुर्मासिक दिनों में ढाई-ढाई दिन अस्वाध्याय काल रहता है । उन दिनों सूत्र योग को पूर्णकर बाहर नहीं हो सकते हैं। इसी तरह अष्टमी, चतुर्दशी एवं शुक्ल पंचमी के दिन भी योग निक्षेप नहीं कर सकते हैं।
158. नवपद ओली के दिनों में किया गया तप गिनती में नहीं आता है, उतने दिन गिरते हैं।
159. योगोद्वहन के दिनों में पाटली, स्वाध्याय प्रस्थापन एवं प्रवेदन- ये तीनों अनुष्ठान योगवाही स्वयं करता है तथा कालग्रहण और नोतरा सम्बन्धी क्रियाएँ कालग्राही एवं दांडीधर करते हैं।
160. नोंतरा विधि संध्या को कालग्रहण लेने से पूर्व और प्रत्याख्यान एवं वसति शुद्धि करने के पश्चात की जाती है ।
161. बृहत्कल्पभाष्य टीका के अनुसार योगवाही मुनि भिक्षाचर्या से पूर्व कायोत्सर्ग करें। उस कायोत्सर्ग में चिन्तन करे कि आज मेरे क्या है आयंबिल अथवा नीवि? क्योंकि भिक्षाचर्या से पूर्व प्रत्याख्यान की स्मृति कर लेने पर योग विराधना और संयम विराधना नहीं होती है। अन्यथा तप व्यतिरिक्त आहार ग्रहण की संभावना रहती है 140
162. योगवाही निष्कारण विगय सेवन नहीं कर सकता। यदि जरूरी हो तो आज्ञा से कर सकता है। 41
गुरु
163. निशीथभाष्य के अनुसार आगाढ़ योग में अवगाहिम ( पक्वान्न ) के अतिरिक्त शेष नौ विकृतियों का वर्जन किया जाता है । व्याख्याप्रज्ञप्ति के अध्ययनकाल में सर्व प्रकार की अवगाहिम विकृति तथा महाकल्पश्रुत