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________________ अध्याय-3 स्वाध्याय-भाव चिकित्सा की प्रयोग विधि जैन धर्म में स्वाध्याय को ज्ञानोपासना का अनिवार्य अंग माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र के 26वें सामाचारी अध्ययन में मुनि की अहोरात्रिक चर्या का निरूपण करते हुए दिन और रात्रि के आठ प्रहरों में चार प्रहर स्वाध्याय के लिए, दो प्रहर ध्यान के लिए, एक प्रहर शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और एक प्रहर निद्रा के लिए निश्चित किया गया है। इससे जैन साधना के क्षेत्र में ज्ञान की उपासना का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह निःसन्देह स्पष्ट हो जाता है। जैनागमों एवं उससे परवर्ती ग्रन्थों में स्वाध्याय के लिए अनुपयुक्त काल और स्थान की भी चर्चा की गई है, जिसका वर्णन पूर्व अध्याय में कर चुके हैं। उत्तराध्ययनसूत्र निर्दिष्ट यह विधि अप्रमत्त संयम जीवन का आदर्श है। कालग्रहण आदि योगविधि पूर्वक सूत्र स्वाध्याय करने के लिए आहार एवं निद्रा में व्यर्थ समय गंवाना उचित नहीं माना है। सामान्य तौर पर 15 घंटे (लगभग पाँच प्रहर) का स्वाध्याय विहित किया गया है। स्वाध्याय शब्द का अर्थ एवं परिभाषाएँ स्वाध्याय मन को विशुद्ध बनाने का एक श्रेष्ठ प्रयास है। अपने ही भीतर अपना अध्ययन करना, आत्मचिन्तन करना अथवा सत शास्त्रों का मर्यादा पूर्वक अध्ययन करना अथवा श्रेष्ठ शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन-अध्यापन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय का पद विभाग इस प्रकार किया गया है • 'स्वेन स्वस्य अध्ययनं स्वाध्यायः'-स्वयं के द्वारा स्वयं का अध्ययन करना स्वाध्याय है। स्थानांग टीका, आवश्यक टीका, धर्मसंग्रह आदि में स्वाध्याय का व्युत्पत्तिसिद्ध निर्वचन इस प्रकार देखा जाता है • सुष्ठु अर्थात भलीभाँति, मर्यादा के साथ जिसका अध्ययन किया जाता है वह स्वाध्याय है। • श्रेष्ठ-सम्यक अध्ययन करना स्वाध्याय है।
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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