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सम्पादकीय
जैन साहित्यिक रचनाओं में आगमों को सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक माना जाता है। जो स्थान इस्लाम में कुरान, हिन्दू परम्परा में वेद, ईसाईयों में बाईबल का है वही स्थान जैन धर्म में आगमों का है। यह जैन आचार एवं विचार दोनों की ही नींव है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आगमों को गणधर द्वारा रचित एवं जिनवाणी का संकलन माना जाता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार वर्तमान में अंग आगमों का विच्छेद हो चुका है। इसी कारण दिगम्बर मुनि उपलब्ध आगमों का अध्ययन नहीं करते हैं। उनके यहाँ षडखण्डागम, कषाय पाहुड़, तत्त्वार्थसूत्र और आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अध्ययन की ही परम्परा है। वहीं श्वेताम्बर परम्परा में अंग आगमों के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है एवं उनकी अध्ययन परम्परा भी विद्यमान है। श्वेताम्बर परम्परा में मुख्य रूप से तीन परम्पराएँ आती है- श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, तेरापंथी और स्थानकवासी। तीनों ही परम्पराओं ने अंग आगमों के अध्ययन के लिए योगोद्वहन को आवश्यक माना है किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा योगोद्वहन का अर्थ मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को सम्यक दिशा में नियोजित करना इतना ही मानती है। जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में योगेद्वहन एक विशेष प्रक्रिया मानी गई है। वहाँ प्रत्येक आगम के अध्ययन हेतु विशेष प्रकार के योग करवाए जाते हैं। सामान्यतया यहाँ योग का संबंध तपस्या से जोड़ा गया है। अंग आगमों का अध्ययन किस क्रम एवं किन तपों के साथ होना चाहिए इसका विस्तृत उल्लेख श्वेताम्बर आचार्यों के साहित्य में मिलता है।
आचार्य जिनप्रभसूरि (14वीं शती) ने विधिमार्गप्रपा में आगम सूत्रों की अध्ययन विधि का सविस्तृत उल्लेख किया है। अंग आगमों के साथ-साथ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि प्रमुख आगम ग्रन्थों की भी योग विधि उसमें दी गई है। यहाँ योगोद्वहन की यह विधि मुख्य रूप से उपवास, एकासण, नीवी आदि तपों से जोड़ी गई है। इसमें अंग अथवा अन्य आगमों का अध्ययन किस