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वाचना दान एवं ग्रहण विधि का मौलिक स्वरूप... 41
'इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं निसिज्जं समप्पेह' आपकी इच्छा हो तो मुझे आसन समर्पित करिए। उसके बाद गुरु आसन को अभिमन्त्रित कर एवं उसके ऊपर चन्दन का स्वस्तिक कर शिष्य को प्रदान करें। शिष्य आसन को मस्तक पर लगाते हुए ग्रहण करें। फिर शिष्य गृहीत आसन पूर्वक गुरु की तीन प्रदक्षिणा दें।
मन्त्रदान तत्पश्चात शुभ लग्न के आने पर शिष्य के दाहिने कर्ण को चन्दन से पूजित करें और उस दाएँ कान में तीन बार वर्धमानविद्या मन्त्र सुनायें। वह मन्त्र निम्न है।
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“ॐ नमो भगवओ अरहओ महइ महावीर वद्धमाण सामिस्स सिज्झउ मे भगवइ महइमहाविज्जा ॐ वीरे वीरे, महावीरे जयवीरे सेणवीरे, वद्धमाणवीरे जये-विजये जयंते अपराजिए अणिहए ओं ह्रीं स्वाहा । "
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वाचनाचार्य के द्वारा यह मन्त्र उपवास पूर्वक 1000 जाप द्वारा सिद्ध किया जाता है। आचार्य जिनप्रभसूरि कहते हैं कि प्रव्रज्या, उपस्थापना, गणियोग, प्रतिष्ठा आदि श्रेष्ठ कार्यों में इस मन्त्र से सात बार अभिमन्त्रित वासचूर्ण का क्षेपण करने पर शिष्य संसार सागर से पार होता है और पूजा - सत्कार के योग्य बनता है।
शेष विधि - उसके बाद गुरु भगवन्त शिष्य को वर्धमानविद्यामण्डल का पट्ट दें। फिर शिष्य का नया नामकरण करें। तत्पश्चात कनिष्ठ साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविकाएँ नूतन वाचनाचार्य को द्वादशावर्त्तवन्दन करें। फिर नूतन वाचनाचार्य स्वयं भी ज्येष्ठ साधुओं को वन्दन करें। उसके बाद गुरु नूतन वाचनाचार्य को एक कंबल एवं पीठफलक ग्रहण करने की अनुज्ञा देते हैं। इसी के साथ वाचनाचार्य को अनुशिक्षण देते हुए कहते हैं कि तुम गम्भीर, विनीत एवं इन्द्रियजयी होकर साधु-साध्वियों का अनुवर्त्तन करना ।
फिर अन्त में नूतन वाचनाचार्य गुरु को वन्दन कर आयंबिल का प्रत्याख्यान करें। सामान्यतया इस अवसर पर उस देश के राजा, युवराज, मन्त्री एवं श्रावक वर्ग मिलकर महोत्सव करते हैं।
तुलनात्मक विवेचन
वाचना दान एवं वाचना ग्रहण की विधि मूलतः विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर में उपलब्ध होती है। तदनुसार तुलनात्मक विवरण इस प्रकार है1. आचारदिनकर के अनुसार वाचनाकाल के समय प्राभातिक काल ग्रहण एवं स्वाध्याय प्रस्थापना अवश्य करनी चाहिए, किन्तु विधिमार्गप्रपा में इस