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वाचना दान एवं ग्रहण विधि का मौलिक स्वरूप... 39
फिर शिष्य दूसरा खमासमण देकर कहे 'तुब्भे अम्हं वायणारियपय अणुजाणावणियं चेइयाइं वंदावेह' हे भगवन्! वाचनाचार्यपद स्थापन के अनुज्ञापनार्थ मुझे चैत्यादि का वन्दन करवाएं। तब गुरु 'वंदावेमो' कहें। उसके बाद गुरु शिष्य के मस्तक पर वासचूर्ण का प्रक्षेपण करें। फिर शिष्य के साथ जिनमें उच्चारण एवं अक्षर क्रमशः बढ़ रहे हों, ऐसी चार स्तुतियों सहित जयवीयराय सूत्र पर्यन्त देववन्दन करें। यहाँ सम्यक्त्वव्रत आरोपण के समान 18 स्तुतियों से देववन्दन करना चाहिए तथा 'अरिहाणस्तोत्र' के स्थान पर 'पंचपरमेष्ठिस्तव' बोलना चाहिए ।
कायोत्सर्ग - उसके बाद गुरु और शिष्य दोनों ही वाचनाचार्य पद के अनुज्ञापनार्थ एवं वाचनाचार्यपद के ग्रहणार्थ अन्नत्थसूत्र बोलकर एक लोगस्ससूत्र का (सागरवरगंभीरा तक) कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग पूर्णकर प्रकट में लोगस्ससूत्र बोलें।
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नन्दीश्रवण तदनन्तर आचार्य ऊर्ध्व स्थित होकर नन्दीपाठ सुनाने के लिए अन्नत्थसूत्र बोलकर स्वयं एक नमस्कारमन्त्र का कायोत्सर्ग करें और शिष्य को भी नमस्कारमन्त्र का कायोत्सर्ग करवायें। उसके बाद आचार्य तीन नमस्कारमन्त्र का उच्चारण कर लघुनन्दी का पाठ सुनाएं। वह इस प्रकार है 'नाणं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा- आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं' ।
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लघुनन्दी बोलने के पश्चात गुरु विशिष्ट रूप से स्थापित करने की अपेक्षा कहें – ‘एयस्स साहुस्सवायणारियपयअणुण्णा नंदी पवत्तइ' अमुक साधु के लिए वाचनाचार्य पद की अनुज्ञा निमित्त नन्दी क्रिया होती है। यह बोलकर गुरु शिष्य के सिर पर वासचूर्ण डालें। तत्पश्चात आचार्य वर्धमान विद्या द्वारा वासचूर्ण और अक्षत को अभिमन्त्रित करके साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ में वितरित करवाएं। उसके पश्चात जिनप्रतिमा के चरण युगल पर वासचूर्ण का निक्षेप करें।
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सप्तथोभवन्दन 1. तत्पश्चात वाचनाचार्य पदग्राही शिष्य एक खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन देकर कहें 'तुब्भे अम्हं वायणारियपयं अणुजाणह' आप मुझे वाचनाचार्यपद पर स्थापित होने की अनुमति प्रदान करिए। गुरु 'अणुजाणेमो' कहें।