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________________ वाचना दान एवं ग्रहण विधि का मौलिक स्वरूप... 19 अल्प कषायी जीव को वाचना देने से वह माध्यस्थ गुण के कारण किसी भी विषय में कदाग्रह ( दुराग्रह) नहीं रखता है। माध्यस्थ जीव प्रायः माया आदि दोषों से रहित और आसन्न भव्य ही होते हैं अतः ऐसे जीवों को समझाने के लिए किया गया प्रयत्न सफल बनता है। दूसरे गुण के अनुसार बुद्धिमान शिष्य ही किसी विषय के सूक्ष्म एवं स्थूल गुणों तथा दोषों को जान सकता है। वह प्रत्येक सिद्धान्त का कष, छेद और ताप द्वारा परीक्षण कर जो परमार्थतः शुद्ध हो, उसे ही स्वीकार करता है । तीसरे गुण के अनुसार धर्मार्थी शिष्य हड़ नामक वनस्पति की तरह स्वयं को मोहग्रसित जीवों से अलग रखता हुआ सूत्र पाठों का भलीभांति अभ्यास कर सकता है। चौथे गुण के अनुसार अंगचूला यानी आवश्यकसूत्र से लेकर सूत्रकृतांगसूत्र पर्यन्त शास्त्रों का अध्ययन किए हुए मुनि को वाचना देने से ज्ञान वृद्धि आदि अनेक लाभ होते हैं। अंगचूला अध्येता को कल्पित कहा गया है। पाँचवें गुण के निर्देशानुसार परिणत ( शुभ अन्तःकरण वाला), धर्म रूचिवान और पापभीरू शिष्य उत्सर्ग और अपवाद मार्ग को देश-काल के अनुसार स्वीकार करता है अतः परिणत शिष्य को छेदसूत्र पढ़ाना योग्य है। तत्त्वतः योग्य शिष्य को वाचना देने से परिश्रम सफल बनता है, श्रुतपरम्परा सम्यक् रूप से प्रवर्त्तमान रहती है और आगमिक सिद्धान्तों की विपरीत प्ररूपणा नहीं होती है। अयोग्य को वाचना देने के दोष गुरु मुख से सूत्रार्थ का अध्ययन करना वाचना कहलाता है। वाचना ग्रहण करने में विनय का प्राथमिक स्थान है। विनय पूर्वक ग्रहण की गई वाचना ही सुफलदायी होती है। अविनीत को श्रुत प्राप्त होने पर अहंकारी बन जाता है अतः अविनीत को वाचना देने का निषेध है। अविनीत को वाचना देने से वह घाव पर नमक डालने की भांति स्वयं नष्ट होकर दूसरों को भी नष्ट कर देता है। बृहत्कल्पभाष्य में इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि जब ग्वाला गायों के आगे आकर पताका दिखाता है, तब उनकी गति में तीव्रता आ जाती है, यह श्रुति है। अतः जैसे पताका स्वयं प्रस्थित गोयूथ के वेग को बढ़ाती है वैसे ही अविनीत को दिया गया श्रुतज्ञान
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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