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अनुभूति का दर्पण
जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता है। वह अपनी ही शक्ति द्वारा चालित होती है। उसकी व्यवस्था अपने आप में निहित है। प्रत्येक आत्मा स्वयं परमात्मा है।
स्वतंत्रता का यथार्थ मूल्यांकन धार्मिक जगत में ही सम्भव है क्योंकि धर्मआराधना स्वतन्त्र मन से (स्वेच्छापूर्वक) होती है। यहाँ मन की स्वतन्त्रता का अभिप्राय बाहरी बन्धन से मुक्त और नैसर्गिक मर्यादा से बंधा हुआ है। कानुन बाहरी बन्धन है। धार्मिक नियम कानून नहीं है, कारण कि वे बलपूर्वक लादे नहीं जाते। आराधक उन्हें स्वयं अंगीकार करते हैं।
इस भारत देश में गणतन्त्र एवं जनतन्त्र की व्यवस्था है वह विवक्षा भेद से बन्धन रूप है। अनेक शासकों द्वारा संचालित राज्य गणतन्त्र है तथा जनता का शासन जनतंत्र कहलाता है। स्वतन्त्र दृष्टिकोण से गणतन्त्र की अपेक्षा जनतन्त्र अधिक विकासशील है। अत: स्वतन्त्रता का मूल्य सर्वोपरि है क्योंकि इसके गर्भ में ही आध्यात्मिक चेतना का उद्भव होता है।
राज्य संचालन का मूल मन्त्र शक्ति है जबकि धर्मवहन का मूल मंत्र पवित्रता है। जहाँ शक्ति है, वहाँ संघर्ष होगा और जहाँ पवित्रता है, वहाँ हृदय की शुद्धि होगी।
हृदय की निर्मलता के साथ जिस व्यवस्था को स्वीकार किया जाता है वह धर्मानुशासन है, आत्मानुशासन है। जिन व्यवस्थाओं या मर्यादाओं को विवशतापूर्वक स्वीकार किया जाता है, वह राज्यानुशासन है। . यहाँ उल्लेखनीय है कि जैन संघ में आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि पदस्थ मुनियों द्वारा निर्दिष्ट तथ्यों को मानने के लिए किसी को तैयार नहीं किया जाता अपितु संघीय सदस्य स्वयं उन्हें मूल्य देते हैं, जबकि राज्यानुशासन की व्यवस्था इसके विपरीत होती है। आचार्य महाप्रज्ञजी ने अनुशासन के मूलभूत दो प्रयोजन स्वीकार किये हैं। पहला आत्मशुद्धि और दूसरा सामुदायिक व्यवस्था। इनमें एक नैश्चयिक पक्ष है और दूसरा व्यावहारिक। जीवन पर्यन्त के लिए पंच