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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...185 यदि आचार्य गोचरीचर्या में लग जाए, तो प्रमादी शिष्यों के अवश्य करणीय योगों की हानि होती है। वे भिक्षाटन में आलसी बन जाते हैं। ___यदि आचार्य भिक्षाटन करें तो कायक्लेश व परिश्रान्त हो जाने के कारण सम्यक वाचना नहीं दे सकेंगे, इससे शिष्यों और उपसम्पदार्थ साधुओं के सूत्रों की हानि होती है। श्रुतलाभ के अभाव में वे गच्छान्तर चले जायें तो गच्छ की हानि होती है। ___आचार्य को सूत्र-अर्थ, विद्या-मन्त्र, निमित्त-योग-शकुन आदि शास्त्रों का पुनरावर्तन करना तथा एकान्त स्थल में जाकर सूत्रों के रहस्य को आत्मसात करना अनिवार्य होता है। यदि वे भिक्षाटन में प्रवृत्त हो जाये तो इन सबमें व्याघात बाधा होती है इसलिए उनके लिए भिक्षाटन का निषेध है। इससे आचार्य का आदर-सम्मान बढ़ता है और शिष्यों में बड़ों के प्रति विनय-भाव अभिवृद्ध होता है।96 आचार्य पदस्थापना हेतु मुहूर्त विचार
पूर्वोल्लिखित गुण सम्पन्न शिष्य की प्राप्ति होने पर उसे आचार्य पद किस शुभ मुहूर्त में देना चाहिए ? इस विषयक सामान्य जानकारी आचारदिनकर में प्राप्त होती है।
नक्षत्र - तदनुसार इस पदस्थापना के लिए लता दोष, पात दोष आदि से रहित मूल, पुनर्वसु, स्वाति, अनुराधा, हस्त, श्रवण, रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र शुभ हैं।97
वार - शुक्र और मंगलवार को छोड़कर शेष वारों, अशुभ तिथियों को छोड़कर अन्य तिथियों, विशुद्ध वर्ष, महीना, दिन और लग्न में आचार्य पद स्थापना करना उत्तम है। ___ग्रह शुद्धि - पदस्थापना के दिन की लग्न कुंडली लग्न में ग्रहों की युति दीक्षा विधि के समान इस प्रकार देखें98 – लग्न के दूसरे, पाँचवें, छठे एवं ग्यारहवें स्थान में सूर्य हो, दूसरे, तीसरे, छठे एवं ग्यारहवें स्थान में चन्द्र हो, तीसरे, छठे, दसवें एवं ग्यारहवें स्थान में मंगल या बुध हो, केन्द्र (1,4,7,10)
और त्रिकोण (5,9) में गुरु हो, तीसरे, छठे, नौवें और बारहवें स्थान में शुक्र हो, दूसरे, पाँचवें और ग्यारहवें स्थान में शनि हो तथा लग्नांश में गुरु एवं शनि बलवान हो तो आचार्य पद देना चाहिए।