SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...165 हैं। जिस प्रकार एक आचार्य नवीन आचार्य को स्थापित कर स्वयं उसके अभिवादन रूप वन्दन करते हैं। वैसे ही कार्यालय या किसी भी क्षेत्र में नये व्यक्ति के प्रवेश को लेकर उचित मार्गदर्शन प्राप्त होता है। सामुदायिक स्थानों का संचालन कैसे किया जाए? किस प्रकार प्रत्येक सदस्य में शत-प्रतिशत कार्य निष्ठा का निर्माण किया जाए एवं उन्हें हर परिस्थिति में कार्य से जोड़कर रखा जाए? इस विषय में आचार्य की संचालन व्यवस्था विशेष सहायक हो सकती हैं। इस प्रकार सामूहिक कार्य के स्थानों का व्यवस्थापन करने हेतु आचार्य पद का योगदान महत्त्वपूर्ण है। यदि वर्तमान समस्याओं के सन्दर्भ में आचार्य पद की उपादेयता पर विचार किया जाए तो जिस प्रकार किसी भी देश का राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री अपने देश का नेतृत्व करते हुए वहाँ का नायक या Representative कहलाता है वैसे ही आचार्य संघ के नायक होते हैं तथा संघ में आने वाली समस्याओं, विपदाओं, क्लेशादि के वातावरण का उपशमन करते हैं। वह अपनी दूर दृष्टि से साम्प्रदायिक मतभेदों को समाप्त कर नूतन पीढ़ी को धर्म मार्ग से जोड़ने हेतु नित नये उपक्रम करते हैं। साधु संघ में व्याप्त शिथिलताओं को दूर कर उन्हें सतपथ प्रदर्शित करते हैं तथा अपनी प्रभावी वाणी के माध्यम से सामाजिक विद्वेष, कुरीतियों एवं रूढ़ परम्पराओं का उन्मूलन करते हैं। आचार्य के विशेष अधिकार । सामान्य साधुओं की अपेक्षा आचार्य और उपाध्याय को कुछ विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं, उन्हें अतिशय कहा गया है। आगमकारों ने आचार्य और उपाध्याय के क्रमश: पाँच और सात अतिशय बतलाये हैं।60 यह वर्णन उपाध्याय पदस्थापना-विधि में कर चुके हैं। यद्यपि व्यवहारभाष्य में अन्तिम दो अतिशयों के स्थान पर पाँच अतिशय विशेष कहे गये हैं जो निम्न हैं।1 1. उत्कृष्ट भक्त - क्षेत्र-काल के अनुकूल आचार्य को निर्दोष आहार देना। 2. उत्कृष्ट पान - आचार्य को तिक्त- कटुक- आम्ल आदि रसों से रहित अचित्त जल देना अथवा जिस क्षेत्र या काल में जो उत्कृष्ट पेय हो, वह देना। 3. प्रक्षालन - आचार्य के देह अनुकूल या क्षेत्र अनुकूल वस्त्र देना एवं
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy