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130...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रतिपाद्यमान विषय का समग्र स्वरूप प्राप्त हो जाता है। अत: उपाध्याय पद स्थापना विधि के सन्दर्भ में सामाचारीसंग्रह, प्राचीनसामाचारी, सुबोधा सामाचारी, विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर आदि ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
यदि उत्तरकालीन साहित्य का निरीक्षण किया जाए तो संबोधप्रकरण, चारित्रप्रकाश, जिनेन्द्रपूजासंग्रह, नवपदपूजा आदि कुछ रचनाएँ इससे सम्बन्धित पायी जाती हैं परन्तु उनमें इस पद-विधि का कोई वर्णन नहीं है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उपाध्याय पद का सामान्य वर्णन प्राक् साहित्य से अर्वाचीन साहित्य तक बहुतों में उपलब्ध है, किन्तु इस पदस्थापना की विधि मध्यकालीन (विक्रम की 11वीं से 15वीं शती तक के) साहित्य में ही प्राप्त होती है। उपाध्याय पदस्थापना की मौलिक विधि
विधिमार्गप्रपा में उपाध्याय पद स्थापना की निम्न विधि प्रवेदित है-72
खरतर परम्परा मान्य आचार्य जिनप्रभसूरि के अनुसार उपाध्यायपद स्थापना की विधि पूर्व निर्दिष्ट वाचनाचार्यपद स्थापना के समान की जाए, किन्तु सभी आलापक पाठ उपाध्यायपद के अभिलाप (नाम) से बोलने चाहिए। विशेष इतना है कि
• नूतन उपाध्याय को कंबल परिणाम के दो आसन दिए जाएं।
• आचार्य को छोड़कर ज्येष्ठ-कनिष्ठ सभी साधु उपाध्याय पदस्थ को वन्दन करें।
• शुभ लग्न के आने पर नूतन उपाध्याय के दाहिने कर्ण पर चन्दन का लेप कर वर्धमानविद्या का मन्त्र सुनाएँ - __मन्त्र - "ओम् नमो अरिहंताणं, ओम् नमो सिद्धाणं, ओम् नमो आयरियाणं, ओम् नमो उवज्झायाणं, ओम् नमो सव्वसाहूणं, ओम् नमो ओहिजिणाणं,ओम् नमो परमोहि जिणाणं, ओम् नमो सव्वोहिजिणाणं, ओम् नमो अणंतोहि जिणाणं, ॐ नमो भगवओ अरहओ महइ महावीर वद्धमाणसामिस्स सिज्झउ मे भगवइ महइ महाविज्जा, ॐ वीरे-वीरे, महावीरे, जयवीरे, सेणवीरे, वद्धमाणवीरे, जये विजये जयंते अपराजिए अणिहए ओं ही स्वाहा।"