________________
गणिपद स्थापना विधि का रहस्यमयी स्वरूप...97 कायोत्सर्ग - उसके बाद शिष्य एक खमासमण पूर्वक वन्दन करके कहे - "इच्छाकारेण तुन्भे अहं दिगाइ अणुजाणावणियं नंदिकड्डावणियं काउस्सग्गं कारेह" हे भगवन्! आपकी इच्छा हो तो दिशादि की अनुमति देने निमित्त एवं नन्दी पाठ सुनाने के निमित्त कायोत्सर्ग करवाएं। तब गुरु और शिष्य दोनों ही 'दिगाइ अणुजाणावणियं करेमि काउस्सग्गं पूर्वक अन्नत्थसूत्र' बोलकर एक लोगस्ससूत्र का कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग को 'नमो अरिहंताणं' पद से पूर्णकर प्रकट में पुनः लोगस्ससूत्र बोलें।
नन्दी श्रवण - उसके पश्चात मूलगुरु स्वयं अथवा अन्य गीतार्थ शिष्य अनुज्ञा नन्दी के निमित्त तीन बार नमस्कारमन्त्र का उच्चारण कर नन्दीसूत्र सुनाएं। उस समय भावित मन वाला शिष्य भी तदनुरूप परिणत भाव वाला होकर नन्दीसूत्र सुनें।
वासाभिमन्त्रण - तत्पश्चात गुरु अपने आसन पर बैठकर एवं वासचूर्ण को अभिमन्त्रित कर जिनप्रतिमा के चरणों में उसका क्षेपण करें। फिर साधुसाध्वी आदि चतुर्विध संघ में उसे वितरित करें।
गणानुज्ञा प्रवेदन - 1. तदनन्तर भावी गणधारक एक खमासमण देकर कहें - "इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं दिगाइ अणुजाणह" हे भगवन्! आप इच्छापूर्वक मुझे दिशादि की अनुमति दीजिए। तब गुरु कहें - "खमासमणाणं हत्येणं इमस्स साहुस्स दिगाइ अणुन्नायं- अणुन्नायं- अणुन्नायं" पूर्व पुरुषों की परम्परा का अनुसरण करते हुए उनकी भावानुमति पूर्वक इस साधु के लिए दिशादि की अनुमति दी गयी है- ऐसा तीन बार बोलें।
2. शिष्य पुन: एक खमासमण देकर कहें - "संदिसह किं भणामो?" हे भगवन्। आज्ञा दीजिए, अब मैं क्या कहँ ? गरु कहें - "वंदित्ता पवेयह" तुम वन्दन करके प्रवेदित करो।
3. तब शिष्य फिर से एक खमासमणसूत्र द्वारा वन्दन करके कहें - "इच्छाकारेण तुम्भेहिं अम्हं दिगाइ अणुन्नायं, इच्छामो अणुसडिं।" - हे भगवन्! आपके द्वारा मुझे इच्छापूर्वक दिशादि की अनुमति दी जा चुकी है, अब गणधरपद के सम्बन्ध में हितशिक्षा की इच्छा करता हूँ। तब गुरु कहें - "गुरुगुणेहिं वड्ढाहि" - महान गुणों के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करो।
4. फिर शिष्य एक खमासमण द्वारा वन्दन कर कहें - "तुम्हाणं पवेइयं,