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गणिपद स्थापना विधि का रहस्यमयी स्वरूप...95 में उपदर्शित किया है। इसमें इनका नामोल्लेख करते हुए यह सूचित किया गया है कि भिक्षाटन, भिक्षावितरण, प्रतिलेखन आदि आवश्यक क्रियाओं को करने से पूर्व आचार्य, उपाध्याय, गणि आदि सप्तविध पदस्थों में से किसी की अनुमति लेना परम आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इस विषय में कुछ भी नहीं कहा गया है।26
इसके अनन्तर तद्विषयक कुछ उल्लेख व्यवहारसूत्र में प्राप्त होते हैं।27 इसमें गणधारण के योग्य कौन, गणधारण से पूर्व स्थविर की अनुमति आवश्यक क्यों, स्थविर की अनुमति प्राप्त किये बिना गणधारण करने पर प्रायश्चित्त आदि पक्षों पर विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य चर्चा प्राप्त नहीं होती है। इस तरह आगम-साहित्य में मुख्य रूप से ऊपर वर्णित ग्रन्थ गणि-गणधर पद की सामान्य चर्चा करते हैं।
जब हम आगमिक व्याख्या साहित्य का अध्ययन करते हैं तो उनमें आवश्यकचूर्णि,28 आवश्यकटीका29 आदि में गणधर का स्वरूप एवं व्यवहारभाष्य30 में इस विषयक कई उल्लेख हैं। उनमें गणधारक की परीक्षाविधि, गणधारक कैसा होना चाहिए, गणधारक की सामाचारी, गणधारण के योग्य चतुर्भंगी आदि विषय वर्णित है, किन्तु मूलागमों एवं आगमिक टीका साहित्य के किसी भी ग्रन्थ में गणनायकपद प्रदान करने की विधि देखने में नहीं आई है।
तदुपरान्त किसी आचार्य का अचानक देहावसान हो जाए या किसी रोगादि के कारण गणधर को स्थापित किये बिना ही कालगत हो जाए, तो उस स्थिति में गच्छवासी क्षुभित न हो, एतदर्थ विगत आचार्य के शव का परिष्ठापन करने से पूर्व नये गणधर की नियुक्ति करना आवश्यक माना गया है। अत: बिना किसी को आचार्य पद पर स्थापित किये दिवंगत होने की स्थिति में नये आचार्य की अभिषेक-विधि का वर्णन व्यवहारभाष्य में मिलता है, किन्तु यदि आचार्य ने अपने जीवनकाल में ही अन्य गणनायक की स्थापना कर दी हो तो उनके दिवंगत होने पर, पूर्व निर्वाचित आचार्य की पदस्थापना करने का उल्लेख नहीं मिलता है। यहाँ 'गणधर' शब्द का प्रयोग वस्तुत: गणनायक के लिए न होकर आचार्य के लिए किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि आगम पाठों में आचार्य के लिए अनेक जगह ‘गणधर' शब्द भी व्यवहत हुआ है।