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94...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में में सुधर्मास्वामी आदि गणधरों एवं स्वयं तीर्थङ्करों के लिए भी 'थेरे'-स्थविर शब्द का प्रयोग देखा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि गणधारण के लिए गच्छ के स्थविर भिक्षुओं की आज्ञा लेना आवश्यक है। इसी के साथ स्वयं का श्रुतसम्पदा आदि से सम्पन्न होना भी जरूरी है। यदि पूर्व में पदस्थ आचार्य स्वयं विद्यमान हों, तो फिर अन्य किसी स्थविर से अनुमति लेना आवश्यक नहीं होता है। . गणधारण से बाद की सामाचारी ___ जब आचार्य योग्य शिष्य को गणिपद पर नियुक्त कर दें उसके पश्चात अपने द्वारा या उस शिष्य द्वारा प्रतिबोधित एवं प्रव्रजित शिष्यों में से कम से कम तीन शिष्य उस गणनायक को सुपुर्द करें। गणनायक के साथ सदैव तीन शिष्यों का रहना आवश्यक है।
व्यवहारभाष्य के अनुसार एक शिष्य गणनायक के समीप रहता है, वह आवश्यक कार्य सम्पादित करता है और निर्देशानुसार किसी के साथ बातचीत करना, बुलाना आदि कार्य करता है। इससे गच्छाधिपति को वाचना, साधना, पुनरावर्तन आदि श्रेष्ठ कार्यों के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। शेष दो शिष्य भिक्षा आदि लाते हैं, शौचभूमि में गुरु के साथ जाते हैं और स्थान आदि की गवेषणा, प्रतिलेखना आदि कार्य करते हैं।25 गणिपद की परम्परा का मौलिक इतिहास
जीत आचरणा के अनुसार गणधारण दो प्रकार से किया जाता है -
1. कुछ साधुओं के समूह का संचालन करते हुए विचरण एवं चातुर्मास करना प्रथम प्रकार का गण धारण है। ऐसे भिक्षु को गणि, गणधर, गण प्रमुख या अग्रणी कहा जाता है।
2. साधुओं के समूह का अधिपति अर्थात आचार्यादि पद धारण करने वाला गणधारक कहलाता है।
तात्पर्य यह है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समूह के साथ मुखिया होकर विचरण करने वाला एवं गच्छ या समुदाय का अधिनायक बनने वाला गणि, गणधर या गच्छाधिपति कहलाता है।
जब हम गणधारण पद सम्बन्धी विशेष जानकारी प्राप्त करने हेतु आगमसाहित्य के पृष्ठों का आलोड़न करते हैं तो सर्वप्रथम इसका नामोल्लेख आचारचूला में प्राप्त होता है। यहाँ गणि एवं गणधर को अधिकारी मुनि के रूप