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88...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में एवं तर्क निपुण संचालक, मुखिया या प्रभारी होने पर समाज, राष्ट्र या संस्था का सम्यक् रूप से संचालन हो सकता है। पक्षपाती या अयोग्य लोगों का चयन आदि के कारण उत्पन्न होती समस्याओं का समाधान प्राप्त हो सकता है। ___जिसे गणिपद पर स्थापित किया जाए वह श्रुत एवं शिष्य सम्पदा से युक्त हो ऐसा नियम हैं। एकलविहारी साधु को गणिपद पर स्थापित नहीं किया जा सकता। इस विषय में प्रश्न हो सकता है कि शिष्यादि या सहायक मुनि किसी कारण से साथ नहीं रहते हों या शिष्य बने ही न हों ऐसा मुनि यदि श्रुत आदि से योग्य है तो उसे पद पर स्थापित क्यों नहीं किया जाए? इससे तो संघ को एक योग्य संचालक की ही हानि होगी। इसका कारण यह हो सकता है कि मुनि श्रुतादि से सम्पन्न हो तथा अन्य योग्यताएं भी हों, परन्तु स्वभाव से सरल या सहिष्णु न होने पर पदस्थापित मुनि संघ हिलना का कारण बन सकता है। एकलविहारी आचार्य आदि को देखकर अन्य लोगों के मन में उनके आचार आदि के विषय में शंका उत्पन्न हो सकती है, एकल होने से समस्त कार्य स्वयं को करने पड़ेंगे जिसके कारण वे यथायोग्य शासन सेवा नहीं कर सकते। विशेष परिस्थिति उत्पन्न होने पर तद्विषयक मन्त्रणा भी किसी से नहीं कर सकते। स्वज्ञान आदि भी किसी को दे नहीं सकते। अकेले रहने के कारण समस्त साधुसाध्वी के संचालन की कला, वात्सल्य भाव आदि नहीं होने से उनके मन में अभाव भी उत्पन्न हो सकता है, अत: ऐसे श्रुतादि से सम्पन्न मुनि को गणिपद पर स्थापित करने का निषेध किया गया है। अयोग्य को गणानुज्ञा-पद पर स्थापित करने से होने वाले दोष
पंचवस्तुक के अनुसार जो मुनि पूर्वोक्त गुणों से सम्पन्न न हों, उसे गणानुज्ञा देने पर आज्ञाभंग, मिथ्यात्व, अनवस्था, संयम विराधना आदि दोष लगते हैं।10 आचार्य हरिभद्रसूरि ने यह भी निर्दिष्ट किया है कि जिस ‘गणधर' पद को गौतमस्वामी आदि महापुरुषों द्वारा धारण किया गया है उस 'गणधर' पद के महत्त्व को जानते हुए भी जो गुरु अयोग्य को उस पद पर स्थापित करते हैं, वह महापापी और मूढ़ है। तदनुसार जो मुनि पूर्वोक्त गुणों से रहित होने पर भी 'गणधर' पद पर आरूढ़ होता है और उसके अनन्तर उस गणधरपद का विशुद्ध भावों से स्वशक्ति के अनुरूप परिपालन नहीं करता है तो वह मुनि भी महापापी कहलाता है।11