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गणावच्छेदक पदस्थापना विधि का प्राचीन स्वरूप...77 जाते हैं, किन्तु तत्सम्बन्धी पदस्थापना की विधि विक्रम की 10वीं-11वीं शती के ग्रन्थ में ही उपलब्ध होती है। व्यवहारसूत्र में गणावच्छेदक पदस्थ मुनि कितने मुनियों के साथ रहने पर विहार कर सकता है? वर्षावास में कितने मुनियों का साथ रहना जरूरी है? गणावच्छेदक पद के योग्य कौन? इस विषय की चर्चा अवश्य हुई है तथा भाष्यकार ने गणावच्छेदक का स्वरूप भी बतलाया है। इसके अतिरिक्त आचारांग, स्थानांग आदि आगमों में वन्दन, सम्मान, अनुमति ग्रहण आदि सामान्य प्रसंगों को लेकर इसका नामोल्लेख मात्र प्राप्त होता है। इस विषयक सुस्पष्ट पाठांश प्रवर्तक एवं स्थविर पदस्थापना-विधि में अवलोकनीय है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलागमों में गणावच्छेदक का नाम निर्देशमात्र है। छेद ग्रन्थों में तद्विषयक आचारबद्ध सामाचारी के नियम प्रतिपादित हैं। व्याख्या साहित्य में स्वरूप आदि का वर्णन है तथा सामाचारीप्रकरण में इसकी प्रचलित विधि का निरूपण है। गणावच्छेदक पदस्थापना विधि
सामाचारीप्रकरण में वर्णित गणावच्छेदक पदस्थापना-विधि निम्नानुसार है
वासदान- सर्वप्रथम गणावच्छेदकपद के अनुरूप शिष्य का परीक्षा द्वारा निर्णय करें। उसके पश्चात प्रशस्त महत के दिन जिनभवन में या नवनिर्मित नन्दी रचना के सन्निकट स्थापनाचार्य को स्थापित करने एवं गुरु के बैठने हेतु दो आसन बिछाएं। फिर स्थापनाचार्य को उचित आसन पर विराजमान करें। गुरु स्वयं के आसन पर बैठकर चन्दन चूर्ण को संस्कारित करें। फिर गणावच्छेदक पदानुज्ञा निमित्त लोच किये हुए शिष्य के मस्तक पर उसका निक्षेप करें।
देववन्दन- तत्पश्चात जिनमें उच्चारण और अक्षर क्रमश: बढ़ते हुए हों, ऐसी चार स्तुतियाँ एवं शान्तिनाथ, द्वादशांगी देवता, श्रुतदेवता, शासनदेवता, वैयावृत्यकारक देवता की आराधना निमित्त प्रत्येक की एक-एक ऐसे कुल नौ स्तुतियों द्वारा (प्रवर्तकपदस्थापना के समान) देववन्दन करें। यहाँ अरिहाण स्तोत्र के स्थान पर परमेष्ठीस्तव बोलें।
कायोत्सर्ग- तदनन्तर गणावच्छेदकपद पर आरूढ़ होने वाला शिष्य एक खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन करें। फिर पददाता गुरु और पदग्राही शिष्य दोनों ही गणावच्छेदकपद प्रदान एवं ग्रहण करने के निमित्त एक लोगस्ससूत्र का