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अध्याय-3
प्रवर्त्तक पदस्थापना विधि का मार्मिक स्वरूप
जैन-व - व्यवस्था पद्धति में प्रवर्तक का अनूठा स्थान रहा हुआ है। नूतन दीक्षित मुनियों को संयम में दृढ़ रखने, उन्हें रत्नत्रयी की साधना में प्रवर्तित करने एवं विषादग्रस्त या अभावयुक्त मुनियों को चारित्र धर्म में टिकाए रखने हेतु कई मुनियों का निर्धारण किया गया है। इसी से सन्दर्भित आचारचूला में सात पदों के नामोल्लेख प्राप्त होते हैं तथा उसकी टीका में इन पदों का स्पष्ट विवेचन भी उपलब्ध होता है। उनमें प्रवर्त्तक का तीसरा स्थान माना गया है। स्पष्टीकरण के लिए सात पदों के नाम इस प्रकार हैं 1अनुयोगधर अर्थात अर्थ की वाचना देने वाले।
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1. आचार्य
2. उपाध्याय
अध्यापक अर्थात सूत्रपाठ की वाचना देने वाले । 3. प्रवर्त्तक – वैयावृत्य आदि में साधुओं को प्रवृत्त करने वाले । संयम पतित साधुओं को स्थिर करने वाले । गच्छाधिपति।
4. स्थविर
5. गणि
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6. गणधर जो आचार्य के समान होते हुए भी उनके आदेश से मुनि संघ को लेकर पृथक् विचरण करने वाले, साध्वियों की देख-रेख करने वाले तथा ज्ञान आदि की विराधना न करते हुए गण का अभिवर्धन करने वाले । 7. गणावच्छेदक गच्छ सम्बन्धी कार्यों का चिन्तन ( उपधि आदि की व्यवस्था) करने वाले ।
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इस प्रकार साधु सामाचारी का सम्यक् प्रवर्त्तन करने - करवाने में सदैव तत्पर ऐसे प्रवर्त्तक एक सम्माननीय पदवीधर हैं।
प्रवर्त्तक शब्द का अर्थ एवं परिभाषाएँ
'पवत्तण' इस प्राकृत शब्द का संस्कृत रूप प्रवर्तक है ।
• प्रवर्त्तक का शाब्दिक अर्थ है - प्रवृत्ति करने वाला एवं करवाने वाला। बृहद् - हिन्दी कोश के अनुसार कार्य का आरम्भ करने वाला एवं संचालन