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आहार सम्बन्धी 47 दोषों की कथाएँ ...247 21. चूर्ण प्रयोग : क्षुल्लकद्वय एवं चाणक्य कथानक
कुसुमपुर नगर25 में चन्द्रगुप्त नामक राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम चाणक्य था। वहाँ जंघाबल से क्षीण सुस्थित26 नामक आचार्य प्रवास करते थे। एक बार भयंकर दुर्भिक्ष हो गया। आचार्य ने सोचा- ‘समृद्ध नामक शिष्य को आचार्य पद पर स्थापित करके सकल गच्छ के साथ इसे किसी सुभिक्ष वाले स्थान में भेज दूंगा।' आचार्य ने उसको एकान्त में योनिप्राभृत की वाचना देनी प्रारंभ की। किसी प्रकार दो क्षुल्लकों ने अदृश्य करने वाले अंजन बनाने की व्याख्या सुन ली। उस अंजन को आंखों में लगाने से व्यक्ति किसी को दिखाई नहीं देता।
योनिप्राभृत की व्याख्या में समर्थ होने के बाद आचार्य ने अपने शिष्य समृद्ध को आचार्यपद पर स्थापित कर दिया। आचार्य ने सकल गच्छ के साथ उसको देशान्तर में भेज दिया। आचार्य स्वयं एकाकी रूप से वहाँ रहने लगे। कुछ दिनों के बाद आचार्य के स्नेह से अभिभूत होकर वे दोनों क्षुल्लक आचार्य के पास आए। जो कुछ भी प्राप्त होता, आचार्य उसे क्षुल्लक भिक्षुओं को बांटकर आहार करते थे। वे स्वयं कम आहार लेते भिक्षओं को अधिक देते थे। आहार की कमी से आचार्य का शरीर दुर्बल हो गया। तब क्षुल्लकद्वय ने सोचा आचार्य हमारी वजह से ऊणोदरी कर रहे है अत: हम पूर्व श्रुत अंजन का प्रयोग करके चन्द्रगप्त के साथ भोजन करेंगे। उन्होंने वैसा ही किया। आहार की कमी से चन्द्रगुप्त का शरीर कृश होने लगा। चाणक्य ने उनसे पूछा-'आपका शरीर दुर्बल क्यों दिखाई दे रहा है?' राजा चन्द्रगुप्त ने कहा- 'परिपूर्ण आहार की प्राप्ति न होने से।' तब चाणक्य ने चिन्तन किया- 'इतना आहार परोसने पर भी आहार की कमी कैसे हो सकती है? ऐसा लगता है कि निश्चित ही कोई अंजन सिद्ध व्यक्ति राजा के साथ भोजन करता है। तब उसने अंजन सिद्ध को पकड़ने के लिए भोजन मण्डप में अत्यन्त सूक्ष्म इष्टक चूर्ण विकीर्ण कर दिया। चाणक्य ने चूर्ण पर चिह्नित मनुष्य के पैरों के चिह्नों को अंकित देखा। चाणक्य को निश्चय हो गया कि दो अंजन सिद्ध व्यक्ति यहाँ आते हैं। चाणक्य ने द्वार को ढंककर भोजन-मण्डप में चारो ओर धूम कर दिया। धूम से बाधित नयनों से
आँसू बहने के साथ अंजन भी साफ हो गया। अञ्जन का प्रभाव समाप्त होने पर दोनों क्षुल्लक प्रकट हो गए। चन्द्रगुप्त ने जुगुप्सा के साथ कहा- 'अहो! इनका झूठा भोजन करने से मैं दूषित हो गया।' चाणक्य ने शासन और प्रवचन की अवहेलना न हो इसलिए एक समाधान खोजा। उसने राजा को कहा-'राजन्!