________________
आहार सम्बन्धी 47 दोषों की कथाएँ ...229 ऋण दो कर्ष हो गया। अत्यधिक ऋण होने के कारण वह उसकी पूर्ति करने में समर्थ नहीं हो सकी। भोजन के लिए उसने पूरे दिन श्रम किया लेकिन ऋण को चुकाना संभव नहीं हो सका। दुगुने वृद्धि के क्रम में ऋण अपरिमित हो गया। तब श्रेष्ठी ने सम्मति से कहा- 'या तो तुम मेरा तेल दो अन्यथा मेरा दासत्व स्वीकार करो।' तेल देने में असमर्थ उसने सेठ का दासत्व स्वीकार कर लिया। ___ कुछ वर्ष बीतने पर सम्मत नामक साधु पुन: उसी गाँव में विहार करते हुए पहुँचा। उसने अपनी बहिन को घर पर नहीं देखा। बहिन के आने पर उसने घर छोड़ने का कारण पूछा। बहिन ने पुराना सारा घटना क्रम बताकर शिवदेव वणिक के यहाँ दासत्व की बात बताई और दु:ख के कारण रोने लगी। साधु ने कहा-'तुम रुदन मत करो, मैं शीघ्र ही तुमको दासत्व से मुक्त करवा दूंगा।' बहिन को दासत्व से मुक्त करने का उपाय सोचते हुए वह सर्वप्रथम शिवदेव सेठ के घर में पहुँचा। उसकी पत्नी शिवा भिक्षा देने हेतु हाथ धोने के लिए उद्यत हुई। साधु ने हाथ धोने के लिए उसको निवारित करते हुए कहा- 'हाथ धोने से हमको भिक्षा नहीं कल्पती।' पास में बैठे सेठ ने कहा- 'इसमें क्या दोष है?' तब साधु ने हाथ धोने से होने वाली षट्काय विराधना की बात विस्तार से कही। साधु की बात सुनकर उसने आदरपूर्वक पूछा-“भगवन्! आपकी वसति कहाँ है? मैं आपके पास आकर धर्म सुनूंगा।" साधु ने कहा-'अभी तक मेरा कोई उपाश्रय निश्चित नहीं हआ है।' तब सेठ ने अपने घर के एक कोने में साधु को रहने के लिए स्थान दे दिया।
सेठ साधु से प्रतिदिन धर्म सुनता था। सेठ ने सम्यक्त्व एवं अणुव्रत स्वीकार कर लिए। साधु ने एक दिन वासुदेव आदि पूर्वज पुरुषों द्वारा आचीर्ण अभिग्रहों का वर्णन किया। साधु ने बताया कि वासुदेव कृष्ण ने यह अभिग्रह स्वीकार किया था कि यदि मेरा कोई पुत्र भी प्रव्रज्या ग्रहण करेगा तो मैं उसमें बाधक नहीं बनूंगा। इस बात को सुनकर शिवदेव ने भी अभिग्रह ग्रहण कर लिया-'यदि मेरे घर का कोई सदस्य दीक्षा ग्रहण करेगा तो मैं उसको नहीं रोदूंगा।' कुछ समय पश्चात शिवदेव का ज्येष्ठ पुत्र और मुनि की बहिन सम्मति दीक्षा के लिए तैयार हो गए। सेठ ने दोनों को दीक्षा की अनुमति दे दी और उन्होंने प्रव्रज्या स्वीकृत कर ली।