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206... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन जबकि अनगार धर्मामृत में 'वनीपक' नाम का बतलाया गया है। इस श्रृंखला में मूलाचार ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा का अनुकरण करता है।
• श्वेताम्बर परम्परानुसार पांचवाँ उत्पादना दोष 'वनीपक' नाम का है वहाँ अनगार धर्मामृत में वनीपक को चौथा स्थान दिया गया है। मूलाचार के कर्ता ने श्वेताम्बर परम्परा का ही अनुकरण किया है।
• इसी तरह श्वेताम्बर परम्परा में मान्य छठे 'चिकित्सा' नामक दोष को दिगम्बर परम्परा में बारहवाँ स्थान प्राप्त है वहाँ 'चिकित्सा' के स्थान पर 'वैद्यक' नाम दिया गया है। सातवें 'क्रोध' नामक दोष को अनगार धर्मामृत में सातवाँ स्थान है, नौवाँ 'माया' नामक दोष का अनगार धर्मामृत में आठवाँ स्थान है, दसवाँ 'लोभ' नामक दोष का अनगार धर्मामृत में नौवाँ स्थान है, ग्यारहवाँ 'पूर्व पश्चात संस्तव' नामक दोष को अनगार धर्मामृत में क्रमश: दसवाँ और ग्यारहवाँ स्थान दिया गया है और मूलाचार में ग्यारहवाँ एवं बारहवाँ स्थान प्राप्त है क्योंकि दिगम्बर आचार्यों ने पूर्व स्तवन और पश्चात स्तवन ऐसे दो भिन्नभिन्न दोष माने हैं।
• बारहवें 'विद्या' नामक दोष का दिगम्बर परम्परा में तेरहवाँ स्थान है। तेरहवाँ ‘मन्त्र' नामक दोष चौदहवें स्थान पर है। चौदहवाँ 'चूर्ण' नामक दोष पन्द्रहवें स्थान पर है। पन्द्रहवें 'योग' नामक दोष को मूलाचार में 'चूर्ण' के साथ सम्मिलित कर दिया गया है।
स्वरूप वैभिन्य- यदि सोलह उत्पादना दोष सम्बन्धी स्वरूप को लेकर विचार किया जाए तो पाँचवें वनीपक नामक दोष के स्वरूप में अन्तर दिखता है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भिक्षा देने वाला जिसका भक्त हो, उसके समक्ष स्वयं को भी उसका भक्त बताकर भिक्षा ग्रहण करना वनीपक दोष है। जबकि अनगार धर्मामृत में वनीपक दोष का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि 'कुत्ते आदि को भी दान करने से पुण्य होता है फिर मुनि का तो कहना ही क्या?' इस प्रकार दाता के अनुकूल वचन कहकर भोजन प्राप्त करना वनीपक दोष है।40 मूलाचार की टीका इस सम्बन्ध में यह कहती है कि दाता के द्वारा पूछे जाने पर कि कुत्ता, कृपण, अतिथि आदि को दान देने से पण्य होता है या नहीं? तब कहना कि पुण्य होता है ऐसा बोलकर आहार ग्रहण करना वनीपक दोष है।41