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भिक्षाचर्या का ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अनुसंधान ...201 तुलनात्मक विवेचन
आहार प्राणी मात्र के लिए अनिवार्य है। उसके अभाव में जीवन की गतिविधियाँ दीर्घ समय तक टिकी रहे यह असंभव है। जैन मत में शुद्धसात्विक आहार को साधना का आधार माना गया है। शुद्ध भिक्षा की प्राप्ति हेतु एक विधि भी निर्धारित की गई है। हमें इस विधि का स्वरूप आचारांग, दशवैकालिक, पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति, व्यवहारभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य, पंचवस्तुक, पिण्डविशुद्धि, मूलाचार, अनगार धर्मामृत, प्रवचनसारोद्धार आदि में प्राप्त होता है।
इन ग्रन्थों के संदर्भ में भिक्षा विधि की तुलना की जाये तो अनेकों तथ्य स्पष्ट होते हैं। जिनका वर्णन आचारांग एवं दशवैकालिक जैसे सूत्रागमों में सामान्य रूप से प्राप्त होता है।
विधि की अपेक्षा- यह सुस्पष्ट है कि भिक्षाचर्या से सम्बन्धित कई विधियाँ निष्पन्न की जाती हैं। जबकि आगमिक व्याख्याओं एवं परवर्ती ग्रन्थों में इस विषयक विस्तृत विवेचन है। संख्या की दृष्टि से भी ओघनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, पंचवस्तुक आदि परवर्ती साहित्य में भिक्षाचर्या सम्बन्धी अनेक विधियाँ हैं।
सैंतालीस दोष की अपेक्षा- यदि उपलब्ध साहित्य के संदर्भ में 47 दोषों की तुलना की जाए तो आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती, प्रश्नव्याकरण, निशीथ, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि में यह वर्णन अल्पाधिक रूप से प्राप्त होता है। यदि कालक्रम की दृष्टि से विचार करें तो आचारांगसूत्र में निम्न दस दोषों का उल्लेख प्राप्त होता है। 1. आधाकर्म 2. औद्देशिक 3. मिश्रजात 4. अध्यवपूरक 5. पूतिकर्म 6. कृतकृत्य 7. प्रामित्य 8.. आच्छेद्य 9. अनिसृष्ट और 10. अध्यवपूरक22। सूत्रकृतांगसूत्र में भी आहार से सम्बन्धित कुछ दोष उल्लेखित हैं।23 स्थानांगसूत्र में आहार सम्बन्धी दस दोषों की चर्चा आचारांगसूत्र के समान की गई है।24 भगवतीसूत्र में अंगार, धूम, संयोजना, प्राभृतिका और प्रमाणातिरेक इन पाँच दोषों का प्रतिपादन है।25।
इससे विदित होता है कि विक्रम की दूसरी शती के पूर्व तक 47 दोषों का एक साथ उल्लेख नहीं मिलता है। यह अवधारणा विक्रम की दूसरी शती के परवर्तीकाल की ज्ञात होती है।