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भिक्षाचर्या का ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अनुसंधान ... 199
में उद्दिष्ट, स्थापित, प्रादुष्करण, प्रामित्य, मिश्रजात, क्रीत, प्राभृत, आच्छेद्य और अनिसृष्ट। 10 ज्ञाताधर्मकथा आदि आगमों में भी आधाकर्मिक, औद्देशिक आदि दोषों का उल्लेख मिलता है। 11
यहाँ विमर्शनीय है कि साध्वाचार का प्रतिनिधि ग्रंथ दशवैकालिक में उद्गम के औद्देशिक, क्रीतकृत, अभिहृत, पूतिकर्म, अध्यवतर, प्रामित्य और मिश्रजात- इन दोषों का वर्णन मिलता है लेकिन आधाकर्म दोष का उल्लेख नहीं है। 12
दशाश्रुतस्कन्ध तथा दशवैकालिक में वर्णित 52 अनाचारों में कुछ भिक्षाचर्या के दोषों से भी सम्बन्धित हैं1. औद्देशिक - दूसरा उद्गम दोष
2. क्रीतकृत - तीसरा उद्गम दोष
3. अभिहृत - ग्यारहवाँ उद्गम दोष
4. आजीव वृत्तिता - उत्पादना का चौथा आजीवक दोष
5. तप्तानिर्वृत भोजित्व - एषणा का नौवाँ अपरिणत दोष
इस प्रकार प्रकीर्ण रूप से दोषों का उल्लेख मिलता है।
यदि आगमिक व्याख्या साहित्य को देखा जाए तो वहाँ सर्वप्रथम पिण्डनिर्युक्ति में 47 दोषों का एक साथ क्रमिक एवं व्यवस्थित वर्णन प्राप्त होता है। यह नियुक्ति ग्रन्थ एक मात्र आहार विधि का ही प्रतिपादन करता है । 13 तत्पश्चात इस विषयक उल्लेख ओघनिर्युक्ति, व्यवहारभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य आदि में प्राप्त होते हैं।
यदि मध्यकालीन साहित्य का अध्ययन किया जाए तो वहाँ पंचवस्तुक 14 पंचाशक15, अष्टकप्रकरण 16, पिण्डविशुद्धि 17, प्रवचनसारोद्धार 18, यतिदिनचर्या'9 आदि में यह निरूपण देखा जाता है। पंचवस्तुक, पंचाशक, प्रवचनसारोद्धार आदि में आहार सम्बन्धी 47 दोषों का भी उल्लेख है । विधिमार्गप्रपा में भिक्षाचर्या में लगने वाले दोषों की शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त विधान बतलाया गया है। 20 आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस विषय पर सूक्ष्मता से विचार करते हुए भिक्षाचर्या से पूर्व गुर्वानुमति आवश्यक क्यों ? भिक्षाकाल में किस तरह की सावधानियाँ रखी जाये ? भिक्षाग्राही अभिग्रह पूर्वक भिक्षाटन क्यों करें ? भिक्षाग्राही मुनि कब कैसे आलोचना करे? आहार किस विधिपूर्वक रखें ? आहार का परिमाण कितना हो? आहार करने