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अध्याय - 6
भिक्षाचर्या का ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अनुसंधान
भिक्षाचर्या विधि की ऐतिहासिक अवधारणा
प्रत्येक प्राणी का जीवन आहार पर निर्भर है। आहार के ही माध्यम से शरीर की विविध प्रवृत्तियाँ संचालित होती हैं । हमारी प्रवृत्ति जैसी होती है वैसे ही संस्कारों का निर्माण होता है और जैसे संस्कार बनते हैं वैसे विचार होते हैं। विचारों के अनुसार व्यवहार घटित होता है । व्यवहार के धरातल पर ही व्यक्ति का मूल्यांकन किया जाता है। इसका आशय यह है कि अच्छा व्यवहार अच्छे विचारों के बिना नहीं हो सकता, अच्छे विचार सुसंस्कार के बिना नहीं हो सकते तथा सुसंस्कार पूर्णतया व्यक्ति के आहार पर निर्भर होते हैं। इसलिए प्राज्ञ पुरुषों ने आहार शुद्धि को प्राथमिकता दी है।
श्रमण परम्परा में जैन मुनि के लिए इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि वह सदोष, अप्रासुक या अनैषणीय आहार का परित्याग ही न करे अपितु शुद्ध, सात्विक एवं निर्दोष भिक्षा की प्राप्ति हेतु भी प्रयत्न करें। इसलिए उन्हें भिक्षाचर, भिक्षु, भिक्षुक भी कहते हैं। जैन मुनियों की भिक्षाचर्या अनेकविध नियमों से प्रतिबद्ध होती है। उन्हें भिक्षाचर्या में अनेक सावधानियाँ रखनी होती है तथा भिक्षाचर्या से सम्बन्धित कुछ विधि-विधान भी सम्पन्न करने होते हैं। इन मुद्दों पर यदि ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाये तो हमें तत्सम्बन्धी अनेक आगमिक एवं आगमेतर सन्दर्भों की प्राप्ति होती है।
यदि जैन आगम साहित्य का आलोडन किया जाए तो वहाँ 'भिक्षा' शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त है जैसे कि आचारांग, सूत्रकृतांग, 1 समवायांग, 2 अन्तकृद्दशांग' आदि में 'भिक्षा' शब्द दूसरे अर्थों के साथ-साथ आहार के सन्दर्भ में भी व्यवहृत है। समवायांगसूत्र में प्रभु ऋषभदेव को प्रथम भिक्षाचर कहा गया है। समवायांगसूत्र और स्थानांगसूत्र में भिक्षा शब्द बारह भिक्षु प्रतिमाओं के