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176... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन गोचरचर्या के पश्चात उपाश्रय में आकर करने योग्य विधि ___ आचार्य हरिभद्रसूरि रचित पंचवस्तुक के निर्देशानुसार भिक्षाचरी मुनि को अनुज्ञापित स्थान में आकर क्रमशः निम्न क्रियाएँ करनी चाहिए
पाद प्रमार्जन- भिक्षाचर्या से उपाश्रय की ओर लौटते हए वसति की बहिर्भूमि पर रजोहरण द्वारा पैरों का प्रमार्जन करें।
तीन निसीहि- तदनन्तर उपाश्रय के अग्र द्वार, मध्य स्थान एवं प्रवेश द्वार इन तीन स्थानों पर तीन बार 'निसीहि' शब्द बोलें।
अंजलिकरण- उसके पश्चात मस्तक झुकाते हुए गुरु या ज्येष्ठ मुनि को कायिक नमस्कार करें तथा अर्धावनत मुद्रा में 'नमो खमासमणाणं' शब्द का उच्चारण करते हुए वाचिक नमस्कार करें। यदि पात्र भारी हों तो केवल मस्तक झुकाकर ही वन्दन करें।
उपधि निक्षेप- तत्पश्चात डंडा रखने के लिए उस स्थान के ऊर्ध्व भाग एवं अधोभाग की दृष्टि प्रतिलेखना और रजोहरण से प्रमार्जना करें झोली आदि को पात्र के ऊपर ढकें तथा कंबली और चोलपट्ट को उपधि के ऊपर रखें।
प्राचीन सामाचारी के अनुसार पूर्व काल के मुनि चोलपट्ट को समीप लेकर बैठते थे, बाहर जाते समय अथवा गृहस्थों के आगमन आदि कारणों के उपस्थित होने पर उसे पहनते थे। वर्तमान में यह प्रथा नहीं है। व्यवहारतः सर्वथा वस्त्र रहित रहना लोक विरूद्ध है परंतु शरीर की शोभा के लिए वस्त्र का उपयोग करना असंयम रूप है। ___ यदि उपाश्रय में प्रवेश करते समय लघुनीति की शंका हो रही हो तो झोली, पात्र, पलड़ा आदि अन्य साधु को सौंपकर चोलपट्ट पहने हुए ही लघु शंका का निवारण करें। फिर विशुद्ध परिणामी होकर गुरु के समीप जायें। वहाँ योग्य स्थान को चक्षु द्वारा प्रतिलेखित करें और रजोहरण द्वारा उसे प्रमार्जित करें।
आलोचना- फिर संवेग परिणाम से युक्त होकर ईर्यापथ प्रतिक्रमण करें तथा कायोत्सर्ग में भिक्षाचर्या सम्बन्धी दोषों का स्मरण कर उनकी सामान्य शुद्धि करें।10 भिक्षा सम्बन्धी आलोचना विधि
कायोत्सर्ग मुद्रा- पूर्वनिर्दिष्ट सामाचारी के अनुसार भिक्षाग्राही मुनि अतिचारों की आलोचना कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होकर करें। कायोत्सर्ग मुद्रा इस प्रकार की हो