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भिक्षाचर्या की विधि एवं उपविधियाँ ... 173
ग्रहण करने का विधान नहीं है। नियमतः भिक्षाटक मुनि द्वारा आहार आदि का अभिग्रह न लिया जाए तब तक उनके लिए कुछ भी ग्रहण करना वर्जित माना गया है।
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दूसरे मत के आचार्यों का कहना है कि उपयोग के कायोत्सर्ग में भिक्षाचारी मुनि को इस तरह धर्म योग का चिन्तन करना चाहिए कि 'मैं गुरु- बाल-वृद्धनवदीक्षित आदि के लिए भी अमुक-अमुक आहार लाऊंगा, केवल मेरे लिए ही नहीं' इस प्रकार वैयावृत्य की भावना पूर्वक चिन्तन करके कायोत्सर्ग पूर्ण करें। फिर प्रकट में नमस्कार मंत्र बोलें। फिर अर्धावनत होकर गुरु से निवेदन करे - 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' हे भगवन् ! आज्ञा दीजिए। तब गुरुउपयोग पूर्वक कहें- 'लाभ' अर्थात यह काल उचित, अनुकूल एवं बाधा रहित होने से तुम्हें आहार का लाभ हो ।
तत्पश्चात विशेष रूप से विनम्र होकर भिक्षाग्राही मुनि गुरु भगवन्त से पूछे - 'कह लेसहं ?' आहार को किस प्रकार ग्रहण किया जाए ? तब गुरु कहें'जह गहिअं पुव्वसाहूहिं' जिस प्रकार पूर्व काल के साधुओं द्वारा निर्दोष आहार ग्रहण किया गया उसी प्रकार तुम्हें भी निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए।
इससे सूचित होता है कि योग्य गुरु शिष्यों को गीतार्थ साधुओं के समान आचरण करने का शिक्षण देते हैं। तदनन्तर भिक्षाग्राही मुनि 'जस्स य जोगो' कहकर आवस्सही कहते हुए उपाश्रय से निकले।
समीक्षा - जैन भिक्षा की विधि ओघनिर्युक्ति, पंचवस्तुक एवं यतिदिनचर्या में प्राप्त होती है। इन ग्रन्थों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि वर्तमान में पंचवस्तुक वर्णित विधि विशेष रूप से प्रचलित है अतः यहाँ इसी ग्रन्थ का अनुकरण किया गया है।
तुलना की दृष्टि से देखा जाए तो ओघनियुक्ति भाष्य में उपयोग क्रिया को चार स्थानों में विभक्त किया है 1. 'संदिसह उवओगं करेमि इतना गुरु से पूछना प्रथम स्थान है। 2. फिर एक नमस्कार मन्त्र का कायोत्सर्ग कर 'संदिसह' शब्द पूर्वक आहार चर्या की अनुमति लेना, गुरु द्वारा 'लाभ' कहकर अनुमति देना और शिष्य द्वारा ‘कह लेसहं’ इत्यादि पूछना दूसरा स्थान है। 3. फिर गुरु द्वारा 'जह गहियं पुव्व साहूहिं' कहने पर 'आवस्सियाए' कहना तीसरा स्थान है और 4. 'जस्स य जोगो' कहना चौथा स्थान है। उक्त चारों स्थान गुरु की अनुज्ञा प्राप्त करने सम्बन्धी है। 2