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________________ 160... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन कोटि आयु वाली गृहिणी से घी की याचना की। उस समय किसी कारण से वह नहीं दे सकी, किन्तु बाद में उसने वह घी मुनि के दिवंगत न होने तक यथावत रखा तो उस स्थापित घी का काल देशोनपूर्वकोटि हो सकता है। दिवंगत होने पर वह घी स्थापना दोष से मुक्त हो जाता है। पिण्डनियुक्ति टीका, पृ. 91 63. पिण्डनियुक्ति, 281-82 64. जीतकल्पभाष्य, 1223 65. पिण्डनियुक्ति, गा. 284 की टीका, पृ. 91 66. जीतकल्पभाष्य, 1221-1222 67. पिण्डविशुद्धिप्रकरण, 47 68. कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुमान पुरस्सरी कारण यदभीष्टं वस्तु दीयते तत्प्राभृतमुच्यते। पिण्डनियुक्ति टीका, पृ. 35 69. प्रवचनसारोद्धार टीका, पृ. 399 70. (क) वही, पृ 400-402 (ख) पंचाशक प्रकरण, 13/10 71. पिण्डनियुक्ति, 288 72. पिण्डनियुक्ति, भाष्य 26, 27 73. पिण्डनियुक्ति, 289 74. वही, 286-87 75. मूलाचार, 433 76. पिण्डनियुक्ति, 291 77. मूलाचार टीका, पृ. 3240 78. नीयदुवारंधारे गवक्खकरणाइ पाउकरणं तु। पंचवस्तुक, 747 79. प्रकटत्वेन देयस्य वस्तुन: करणं प्रादुष्करणम्। प्रवचनसारोद्धार टीका, पृ. 402 80. ईर्यापथदोषदर्शनादिति। मूलाचार टीका, पृ. 341 81. दशवैकालिकसूत्र, 5/1/20 82. कीतकडं जं किणिऊण दिज्जति। (क) दशवैकालिक अगस्त्यचूर्णि, पृ. 60
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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