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152... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
1. क्षेत्रातिक्रान्त- सूर्योदय से पूर्व ग्रहण किए हुए आहार का सूर्योदय के पश्चात अथवा सूर्यास्त होने के पूर्व तक उपभोग करते रहना, क्षेत्रातिक्रान्त दोष है। जैन मुनि के लिए यह उत्सर्ग नियम है कि वह रात्रि में न तो भोजन ग्रहण करें और न ही उसका उपभोग करें। सूर्योदय होने के बाद जब तक आवश्यक स्वाध्याय न कर लिया जाए तब तक भिक्षाटन नहीं करना चाहिए। यह मर्यादा आहार संयम के लिए अत्यन्त जरूरी है।
2. कालातिक्रान्त- दिन के प्रथम प्रहर में लाये हुए भोजन का चतुर्थ प्रहर में उपभोग करना, कालातिक्रान्त दोष है ।
तीर्थंकर पुरुषों ने यह व्यवस्था बनाई है कि जैन भिक्षु तीन प्रहर से अधिक काल तक भोजन नहीं रख सकता है। दिन के प्रथम प्रहर का लिया हुआ आहार तृतीय प्रहर तक खा सकता है, यदि चतुर्थ प्रहर में खाए तो प्रायश्चित (दण्ड) आता है। यह नियम संग्रह वृत्ति को रोकने के लिए है। इस नियम के पीछे भिक्षा का पवित्र आदर्श भी रहा हुआ है। अधिक से अधिक मांगना और अधिक से अधिक काल तक संग्रह कर रखना साध्वाचार के सर्वथा विरुद्ध है।
3. मार्गातिक्रान्त- अर्ध योजन से अधिक दूर तक आहार लेकर जाना और उसका उपभोग करना, मार्गातिक्रान्त दोष है।
जैन मुनि के लिए यह नियम है कि वह अत्यन्त आवश्यक होने पर गृहीत आहार को अधिक से अधिक अर्ध योजन (दो कोस छह किलोमीटर) तक ले जा सकता है, इससे आगे नहीं । यह नियम भी संग्रह वृत्ति को रोकने और भोजन तृष्णा को घटाने के उद्देश्य से है। अन्यथा आहार आसक्त मुनि विहार यात्रा में मेवा-मिष्ठान्न आदि लेकर घूमता रहेगा ।
4. प्रमाणातिक्रान्त- परिमाण से अधिक भोजन करना, प्रमाणातिक्रान्त
दोष है।
जैन मुनि के लिए यह नियम है कि वह शरीर निर्वाह हेतु बत्तीस ग्रास से अधिक न खाये। यह नियम भिक्षाकाल के समय अधिक मांगने की प्रवृत्ति का निरोध करने एवं रस गृद्धि को मन्द करने के लिए है। 257
शय्यातरपिण्ड- साधु को रहने के लिए स्थान देकर जो भव समुद्र को पार कर लेता है, वह शय्यातर कहलाता है। जिसके घर या फॉम हाउस आदि स्थान पर मुनि एक या अधिक रात ठहर जायें, उस मालिक का आहार