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आहार से सम्बन्धित बयालीस दोषों के कारण एवं परिणाम ...149
रस आसक्तिपूर्वक द्रव्य संयोजना करते हुए अपनी आत्मा के साथ कर्मों की भी संयोजना करना भाव संयोजना है।245
अपवाद- यदि पर्याप्त आहार लेने के पश्चात घी आदि बच जाये और उस अवशेष सामग्री को उठाने के लिए उसमें शक्कर आदि मिश्रित की जाये तो संयोजना दोष नहीं लगता है। रुग्ण को स्वस्थ करने के लिए संयोजना करे, दीक्षित राजकुमार आदि या नूतन मुनि के लिए संयोजना करे तो दोष नहीं लगता। इस सम्बन्ध में भी आचार्य आदि का विवेक आवश्यक है।
परिणाम- स्वाद के लिए अनुकूल द्रव्यों की संयोजना कर उसका उपभोग करने पर आत्मा रसगृद्धि के अप्रशस्त भाव से युक्त होती है। इस संयोजना से कर्मबंधन होता है और कर्मबंधन से दुखद भव परम्परा बढ़ती है।246 2. प्रमाणातिरेक दोष
आसक्तिवश या अतृप्तिवश तीन बार से अधिक अति मात्रा में आहार करना प्रमाणातिरेक दोष है।247 भगवतीसूत्र के अनुसार 32 कवल से अधिक आहार करना प्रमाणातिक्रान्त आहार है।248 ___ पिण्डनियुक्ति के अनुसार प्रमाणातिरेक दोष पाँच प्रकार से घटित होता है।249
1. प्रकाम- पुरुषों के लिए बत्तीस, स्त्रियों के लिए अट्ठाईस तथा नपुंसक के लिए चौबीस कवल आहार प्रमाणोपेत है। उससे अधिक आहार ग्रहण करना प्रकाम आहार है।
2. निकाम - प्रतिदिन प्रमाण से अधिक खाना निकाम आहार है। 3. प्रणीत - गरिष्ठ या अतिस्निग्ध आहार करना प्रणीत आहार है। 4. अतिबहुक- अपनी भूख से अधिक भोजन करना अतिबहुक आहार है। 5. अतिबहुशः - दिन में अनेक बार भोजन करना अतिबहश: आहार है।
परिणाम- अधिक खाने या बार-बार खाने से भोजन पचता नहीं है तथा अपच की स्थिति में अतिसार, वमन आदि रोग और मृत्यु तक संभव है। इससे स्वाध्याय, ध्यान आदि साधना में भी प्रमाद आता है।250 3. स-अंगार दोष ___ आसक्ति या मूर्छा भाव से प्रासुक आहार पानी की अथवा दाता की प्रशंसा करते हुए उसका उपभोग करना अंगार दोष है।251 जैसे अग्नि से जला हुआ कोयला धूम रहित होने पर अंगारा बन जाता है वैसे ही राग रूपी ईंधन के द्वारा चारित्र जल जाए तो वह अंगारे के समान मलीन हो जाता है।252