________________
142... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
• कोढ़ी से भिक्षा लेने पर रोग संक्रमण का भय रहता है।
• पादुकारूढ़, बेड़ियों से बद्ध, हाथ-पैर कटे हुए इन व्यक्तियों से भिक्षा लेने पर लोक में निन्दा हो सकती है, चलते हुए सन्तुलन न रहे तो दाता गिर सकता है, इनके गिरने आदि से परिताप हो सकता है, कठिनाई से चल पाने के कारण जीवों की विराधना भी संभव रहती है।
• नपुंसक से भिक्षा लेने पर काम वासना के जागृत होने की संभावना रहती है। यदि उससे अति परिचय हो जाए तो लोगों में मुनि आचार के प्रति शंका हो सकती है, लोक निन्दा भी होती है कि ये मुनि अधम लोगों के हाथ से भिक्षा लेते हैं।
• बालवत्सा अथवा गर्भिणी स्त्री से भिक्षा लेने पर बच्चे को कष्ट हो सकता है। यदि बालक भूमि पर सोया हुआ हो तो उसे मांस पिण्ड या खरगोश आदि का बच्चा समझकर बिल्ली या अन्य पशु उसकी हिंसा कर सकते हैं। भिक्षा देने के बाद सूखे हुए हाथों से यदि माता बालक को स्पर्श करें तो उसे पीड़ा हो सकती है।
• भोजन करती हुई स्त्री के हाथ से भिक्षा लेने पर बीच में हाथ आदि धोए जाए तो अपकाय जीवों की विराधना होती है और बिना हाथ धोये भिक्षा देने से लोक निन्दा होती है।
. बिलौने की क्रिया में त्रस जीवों की हिंसा होती है अत: उस स्त्री से भिक्षा लेने पर लिप्त दोष संभव है।
• धान्य का खंडन करती हुई या धान्य को दलती हुई स्त्री से भिक्षा लेने पर सचित्त बीज आदि अथवा हाथ आदि धोए जाएं तो अप्काय जीवों की विराधना हो सकती है। यदि भिक्षा देने में समय लग जाए और कढ़ाई में डाले हए चने आदि जल जाये तो दाता के मन में जैन मुनियों के प्रति अरुचि एवं द्वेष पैदा हो सकता है। संघट्टा दोष की भी संभावना रहती है।
• इसी तरह रुई आदि पीजती हुई, कपास से बिनौले अलग करती हुई, सूत कातती हुई स्त्री के द्वारा भिक्षा ग्रहण करने पर उनके द्वारा खरडित हाथ धोए जाने से अप्कायिक जीवों की विराधना होती है तथा सचित्त बीजादि का संघट्टा होता है।