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आहार से सम्बन्धित बयालीस दोषों के कारण एवं परिणाम ...135
• त्रसकाय के संदर्भ में कीड़े-मकोड़ों से आच्छादित भिक्षा लेना त्रसकाय अनन्तर पिहित दोष है।
• कीड़ी आदि से युक्त शराव से ढकी हुई भिक्षा लेना त्रसकाय परम्पर पिहित दोष है।
सचित्त पृथ्वी आदि से स्पर्शित अनन्तर पिहित भिक्षा मुनि के लिए सर्वथा अग्राह्य है क्योंकि इसके लेन-देन में संघट्टा आदि दोषों की संभावना रहती है। सचित्त पृथ्वी आदि से युक्त परम्पर पिहित भिक्षा दोष टालते हुए यतना पूर्वक ग्राह्य है।
परिणाम- सचित्त पिहित युक्त भिक्षा ग्रहण करने से जीव हिंसा और संयम हानि दोनों होती है। 5. संहृत (संस्पर्शित) दोष
जिस पात्र से भिक्षा दी जा रही हो, उसमें यदि सचित्त या मिश्र धान्य आदि के कण हों तो उसे भूमि पर या अन्यत्र रखकर फिर भिक्षा देना, संहत दोष है।213 मूलाचार में संहृत के स्थान पर संव्यवहरण शब्द का प्रयोग है। उसके अनुसार मुनि को आहार देने के लिए वस्त्र या बर्तन आदि को देखे बिना शीघ्रता से हटाना संव्यवहरण दोष है।214 अनगारधर्मामृत में इसके स्थान पर साधारण दोष का उल्लेख है।215
जिस प्रकार निक्षिप्त और पिहित दोष में सचित्त, अचित्त और मिश्र की तीन चतुर्भंगियाँ होती है, वैसे ही इसकी भी चतुर्भंगियाँ हैं। केवल द्वितीय और तृतीय चतुर्भगी के तीसरे विकल्प की मार्गणा विधि में अंतर है।216 पिण्डनियुक्ति में शुष्क संहृत और आर्द्र संहृत तथा संहियमाण के आधार पर चार भंगों की कल्पना इस प्रकार की गई है
1. शुष्क पर शुष्क। 3. आर्द्र पर शुष्क। 2. शुष्क पर आर्द्र। 4. आर्द्र पर आर्द्र।
इनमें शुष्क वस्तु को संहृत करने से जीव हिंसा की संभावना कम रहती है अत: शुष्क पर शुष्क को संहत किया जाए तो वह सामग्री साधु के लिए ग्राह्य हो सकती है।
आचार्य भद्रबाहु ने संहृत दोष को स्तोक और बहु के आधार पर भी समझाया है