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134... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
विकल्प में केवल पात्र भारी है जिसको उठाये बिना भी कटोरी, चम्मच आदि से भिक्षा दी जा सकती है। इसमें दाता को चोट आदि की संभावना नहीं रहती । चतुर्थ विकल्प में दोनों ही वस्तुएँ हल्की है अतः वस्तु ग्राह्य है। 212
भावार्थ यह है कि भिक्षा लेते-देते समय गृहस्थ दाता एवं भिक्षाटक मुनि दोनों को यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भोजन पात्र के ऊपर रखा हुआ ढक्कन भारी है या हल्का। यदि ढक्कन भारी हो तो साधु उस बर्तन वाली भिक्षा ग्रहण नहीं करे और गृहस्थ भी तुरन्त ढक्कन उठाकर भिक्षा नहीं दे । अन्यथा अचित्त वस्तु एवं अचित्त पात्र होने पर भी दोष लग जाता है।
सचित्त पिहित आदि के भी दो-दो भेद हैं- अनन्तर और परम्पर। इनका सामान्य स्वरूप यह है
• सचित्त पृथ्वी के ढक्कन से ढँके हुए पूए आदि खाद्य पदार्थ ग्रहण करना, पृथ्वीकाय अनन्तर पिहित दोष है ।
• सचित्त पृथ्वी पर रखे गए पिठर में रखा हुआ खाद्य भिक्षा रूप में ग्रहण करना, पृथ्वीकाय परंपर पिहित दोष है ।
• बरफ आदि अप्काय पिण्ड से ढँकी हुई भिक्षा लेना, अप्काय अनन्तर पिहित दोष है।
• सचित्त पानी पर रखे गए बर्तन की वस्तु ग्रहण करना, अप्काय परम्पर पिहित दोष है।
• अंगारों से संस्कारित किये गये केर आदि ग्रहण करना, तेउकाय परंपर पिहित दोष है।
• अंगारों से युक्त शराव आदि से ढँकी हुई भिक्षा लेना, तेउकाय अनंतर पिहित दोष है।
• अंगारे पर वायु भी होती है क्योंकि वायु के बिना आग जल ही नहीं सकती। अतः अंगारा डालकर हिंग आदि से संस्कारित किये गए केर आदि लेना, तेजस् और वायु दोनों से अनन्तर पिहित दोष है ।
• वायु भरी हुई थैली आदि से ढँकी हुई भिक्षा लेना, वायुकाय परम्पर पिहित दोष है।
• फल आदि से ढकी हुई भिक्षा लेना वनस्पतिकाय अनन्तर पिहित दोष है । • फल युक्त छाबड़ी आदि से ढँकी हुई भिक्षा लेना, वनस्पतिकाय परंपर
पिहित दोष है।