________________
132... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
• वायु द्वारा उड़ाया गया पापड़, धान्य का छिलका आदि लेना, वायुकाय अनन्तर निक्षिप्त दोष है।
• हवा युक्त थैली, तकिये आदि पर रखे हुए पूए आदि लेना वायुकाय परम्पर निक्षिप्त दोष है।
• वनस्पतिकाय की दृष्टि से हरियाली पर रखी गई वस्तु लेना, वनस्पतिकाय अनन्तर निक्षिप्त दोष है।
• हरियाली पर रखे हुए पिठरक आदि में रही हुई वस्तु लेना, वनस्पतिकाय परम्पर निक्षिप्त दोष है।
• त्रसकाय की दृष्टि से बैल के पीठ पर रखे हुए मालपुए आदि लेना, त्रसकाय अनन्तर निक्षिप्त दोष है। '
• बैल के पीठ पर कुतुप आदि भाजनों में भरकर रखे हुए मालपुए लेना, त्रसकाय परम्पर निक्षिप्त दोष है।
टीकाकार मलयगिरि के अनुसार निक्षिप्त के कुल 432 भेद होते हैं। सचित्त पृथ्वी आदि पर अनन्तर रूप से रखी गई भिक्षा संघट्ट आदि दोषों के कारण सर्वथा अग्राह्य है इसलिए सचित्त अनन्तर निक्षिप्त युक्त भिक्षा मुनि को कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि परम्पर रूप से रखी गई भिक्षा में संघट्टादि दोष टल सकते हों तो यतनापूर्वक ले सकते हैं। ___ परिणाम- निक्षिप्त भिक्षा में षट्कायिक जीव विराधना और संयम विराधना होती है। निक्षिप्त के पूरे प्रसंग को पढ़कर जाना जा सकता है कि जैन आचार्यों ने साधु की भिक्षाचर्या के विषय में जितनी सूक्ष्मता से चिन्तन किया है। अन्य किसी भी धर्म के संन्यासी वर्ग के लिए इतनी सूक्ष्म अहिंसा प्रधान भिक्षाचर्या का उल्लेख नहीं मिलता है।
4. पिहित दोष (ढंका हुआ) - सचित्त, अचित्त या मिश्र इन तीनों प्रकार की वस्तुओं से ढंकी हुई भिक्षा लेना पिहित दोष है। दिगम्बर मूलाचार के अनुसार सचित्त फल या पृथ्वी आदि से ढंके हुए अथवा अचित्त भारी पदार्थ से ढंके हुए खाद्य पदार्थ को ग्रहण करना पिहित दोष है।210 पिहित दोष तीन प्रकार का होता है- 1. सचित्त 2. अचित्त और 3. मिश्र। इन तीनों की तीन चतुर्भंगियाँ
होती है।211