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118... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन ___ मूलाचार की जिन गाथाओं में उद्गम के 16 दोषों का उल्लेख है, वहाँ सर्वप्रथम आधाकर्म का नाम है लेकिन आधाकर्म को जोड़ने से उद्गम के 17 दोष हो जाते हैं। अत: दिगम्बर परम्परा में आधाकर्म को 16 दोषों के साथ नहीं जोड़ा गया है। मूलाचार के टीकाकार इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि अध:कर्म (आधाकर्म) महादोष वाला है। अत: इसको अलग से रखा गया है।140 अनगारधर्मामृत में भी आधाकृत को उद्गम दोषों के साथ नहीं जोड़ा गया है।141
उपर्युक्त सभी दोष गृहस्थ के अविवेक से लगते हैं किन्तु जैन मुनि को चाहिए कि वह आहार लेते समय विवेक पूर्वक प्रश्नादि पूछकर उद्गम दोषों से रहित शुद्ध आहार आदि ग्रहण करें। ____ इनमें से कुछ दोष भोजन बनाने से पूर्व, कुछ भोजन बनाते समय, कुछ भोजन बनाने के पश्चात और कुछ साधु-साध्वी को आहार देते समय लगते हैं।
उत्पादना के सोलह दोष उत्पादना का सामान्य अर्थ है- उत्पन्न करना। उत् उपसर्ग पूर्वक पद् धातु से णिजन्त में उत्पादन शब्द बना है उसका अर्थ होता है उत्पन्न करवाया जाना। दूसरे शब्दों में जिन दोषों से आहार उत्पाद्यते- उत्पन्न करवाया जाता है वे उत्पादन दोष कहलाते हैं। ___ आचार्य हरिभद्रसूरि ने उत्पादन, संपादन और निर्वर्तन इन तीनों को एकार्थवाची माना है।142 पिण्डनियुक्ति में नाम, स्थापना और द्रव्य के आधार पर उत्पादना शब्द की विस्तृत व्याख्या की गई है।143 भाव उत्पादना के दो प्रकार बतलाए हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि की उत्पत्ति होना प्रशस्त भाव उत्पादना है144 तथा क्रोध आदि से युक्त धात्री के द्वारा हिंसाजनित आहार उत्पन्न करवाना अप्रशस्त भाव उत्पादना है।145
उत्पादना के सोलह दोष साधु के द्वारा लगते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं1. धात्री 2. दूती 3. निमित्त 4. आजीवक 5. वनीपक 6. चिकित्सा 7. क्रोध 8. मान 9. माया 10. लोभ 11. पूर्व-पश्चात्संस्तव 12. विद्या 13. मन्त्र 14. चूर्ण 15. योग और 16. मूलकर्म।146 1. धात्री दोष
पाँच प्रकार की धायमाता के समान बालक को खिलाकर आहार प्राप्त करना, धात्री दोष है।147 शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार जो बालक को धारण करती है, बालक का पोषण करती है वह धात्री कहलाती है।148