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xiv... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
साध्वीजी को विगत 20 वर्षों से जानता हूँ और तभी से उनके दृढ़ मनोबल एवं अहोरात्र परिश्रम का साक्षात्कार करता रहा हूँ। विधिमार्गप्रपा जैसे कठिन प्राकृत ग्रंथ का अर्थ हो या विधि-विधान सम्बन्धी शोध कार्य ? उन्होंने अपनी शत-प्रतिशत मेहनत इस कार्य में की है। आज उसी मेहनत की बदौलत जैन साहित्य में यह अमूल्य सर्जन हुआ है। वे इसी प्रकार अपनी श्रुतयात्रा में नएनए आयामों को प्राप्त करें एवं ज्ञान पिपासुओं के लिए विधि-विधानों की प्रपातुल्य बने यही मंगलकामना।
डॉ. सागरमल जैन प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर