________________
जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन ... xiii
एक साथ क्रमिक वर्णन प्राप्त होता है। यह नियुक्ति आहारविधि से सम्बन्धित ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। मध्यकालीन साहित्य में न्यूनाधिक रूप से इसकी चर्चा प्राय: सभी आचार ग्रन्थों में परिलक्षित होती है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस विषयक रहस्योद्घाटक चर्चा पंचवस्तुक ग्रंथ में की है।
दिगम्बर साहित्य में मूलाचार एवं अणगार धर्मामृत में यह वर्णन स्पष्ट रूप से सविस्तार उपलब्ध है।
जैन मुनि के आहार ग्रहण की कई मर्यादाएँ एवं नियमोपनियम हैं। भिक्षा ग्रहण करने के लिए मुनि ऐसे किसी भी घर में जा सकता है जहाँ सात्त्विक आहार बनता हो। राजपिण्ड, महाभोज आदि का आहार करना निषिद्ध है। वहीं वैदिक ग्रन्थों में शालीन एवं यायावर प्रकार के ब्राह्मणों से भिक्षा ग्रहण करने का निर्देश है। इनके लिए मांस, मधु, अपक्व फल आदि का भी निषेध है। वे अनेक घरों से भिक्षा याचना कर सकते हैं अथवा एक घर से भी भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। वे पकाया हुआ आहार न लेकर आटा, घी, धान आदि की याचना करते हैं और स्वयं पकाकर खाते हैं । लाए हुए आहार का संचय भी कर सकते हैं एवं अन्य लोगों को भी उसके द्वारा भोजन करवा सकते हैं। जबकि जैन मुनि न तो आहार का संचय कर सकते हैं और न ही वे अपना आहार सम्भोगी मुनि के अतिरिक्त किसी अन्य को दे सकते हैं।
श्वेताम्बर परम्परा में मुनिगण गुर्वाज्ञा पूर्वक गोचरचर्या हेतु जाते हैं। एषणा आदि दोषों का निवारण कर विधिपूर्वक आहार लेते हैं। यहाँ पर काष्ठ पात्रों में आहार लाने का विधान है तथा मंडली अर्थात समुदाय में बैठकर आहार ग्रहण किया जाता है। वहीं दिगम्बर मुनि एकल आहारी होते हैं। वे गृहस्थ के घर जाकर नवधा भक्तिपूर्वक करपात्री में आहार ग्रहण करते हैं।
साध्वी सौम्यगुणाश्रीजी की ही गुरुभगिनी साध्वी स्थितप्रज्ञाश्रीजी एवं साध्वी संवेगप्रज्ञाश्रीजी द्वारा पिण्डनिर्युक्ति एवं पंचवस्तुक पर किया गया शोध कार्य भी इस विषय में दृष्टव्य है।
वर्तमान समय में गृहस्थवर्ग की भिक्षाचर्या के प्रति घटती जागरूकता एवं उपेक्षाभाव की परिस्थितियों में यह कृति एक सफल मार्गदर्शक होगी। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भिक्षाचर्या के औचित्य एवं महत्ता को उजागर करना अत्यन्त आवश्यक था, जिसके लिए सौम्यगुणाजी ने एक सार्थक एवं प्रशंसनीय प्रयास किया है।