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________________ 92... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन उपकरण शेष ओघ औद्देशिक, मिश्रजात का प्रथम भेद (यावदर्थिक मिश्र), पूति, स्थापना, सूक्ष्म प्राभृतिका, प्रादुष्करण, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, अभ्याहृत, उद्भिन्न, मालापहृत, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, अध्यवपूरक का प्रथम भेद (स्वगृह यावदर्थिक) ये सभी अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं । " यहाँ ध्यातव्य है कि अविशोधिकोटि के अवयव से युक्त पदार्थ यदि विशुद्ध आहार के साथ मिल जाए तो उस अशुद्ध आहार का विसर्जन करने के पश्चात भी पात्र को तीन बार साफ करना आवश्यक है अन्यथा पूतिदोष लगता है किन्तु विशोधिकोटि आहार के संयुक्त होने पर तीन बार धोने की आवश्यकता नहीं रहती। अब उद्गम दोषों का स्वरूप कहते हैं 1. आधाकर्म दोष आधाकर्म का शाब्दिक अर्थ होता है जिस आहार का आधा भाग साधु के उद्देश्य से निर्मित किया गया हो, वह आधाकर्म दोष वाला आहार कहलाता है। निर्युक्तिकार के अनुसार जो आहार आदि साधु को आधार मानकर निष्पन्न किया जाता है, वह आधाकर्म है। 10 नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ने आधाकर्म को स्पष्ट करते हुए कहा है कि साधु के उद्देश्य से सचित्त वस्तु को अचित्त करना, गृह आदि बनाना और वस्त्र आदि बुनना आधाकर्म है । 11 आधाकर्म की अन्य परिभाषाएँ भी की गई हैं। पिण्डनिर्युक्ति में आधाकर्म के तीन एकार्थक कहे गये हैं- 1. अध:कर्म 2. आत्मघ्न और 3. आत्मकर्म । सूयगडो में इसके लिए आहाकड-आधाकृत शब्द का प्रयोग भी है। 12 अधः कर्म – आधाकर्म आहार का ग्रहण करने से शुभ अध्यवसाय हीन से हीनतर होते हैं। अतः कारण में कार्य का उपचार करके आधाकर्म का एक नाम अध:कर्म रखा गया है। आत्मघ्न- आधाकर्मी आहार का सेवन करने वाला जीवों के हनन के साथ-साथ ज्ञान, दर्शन और चारित्र का घात भी कर देता है, इसलिए आधाकर्म का एक नाम आत्मघ्न है। 13 आत्मकर्म— आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाला मुनि अशुभ भाव में परिणत होकर गृहस्थ के पचन - पाचन आदि कर्म से स्वयं को जोड़ लेता है तथा संक्लिष्ट परिणामों से कर्मों का बंध करता है। अतः आधाकर्म का एक नाम आत्मकर्म भी है। 14
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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