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________________ अध्याय - 4 आहार से सम्बन्धित बयालीस दोषों के कारण एवं उनके परिणाम आहार का सामान्य अर्थ 'भोजन' है। जो भूख-प्यास को शांत रखते हैं और शरीर को पुष्टता प्रदान करते हैं, उन पदार्थों को ग्रहण करना आहार है। आचार्य पूज्यपाद ने आहार का अर्थ विश्लेषित करते हुए कहा है कि तीन शरीर (औदारिक, वैक्रिय, आहारक) और छह पर्याप्तियों (आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा एवं मन ) के योग्य पुदगल वर्गणाओं को ग्रहण करना आहार है। 1 जैन आचार में मुनि संबंधी आहार के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है जैसे कि पिण्डनिर्युक्ति आदि में 'पिंड', पंचवस्तुक में 'भक्तपान', विंशतिविंशिका में 'भिक्षा' आदि शब्द व्यवहृत हैं। 'पिंडि संघाते' धातु से पिंड शब्द निष्पन्न है । अन्वर्थक दृष्टि से सजातीय या विजातीय वस्तुओं का एकत्रित होना पिंड कहलाता है। जैनाचार्यों ने अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चतुर्विध आहार को 'पिण्ड' नाम की संज्ञा दी है। मूलाचार में पिण्ड शुद्धि का अर्थ आहार शुद्धि है। ‘पिण्ड' यह शास्त्रीय नाम है इसी कारण मुनि भिक्षा से सन्दर्भित कई रचनाएँ पिण्डनिर्युक्ति, पिण्डविशुद्धि, पिण्डविधान आदि नामों से देखी जाती है। इनमें मुनि आहार से संभावित 42 दोषों का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है जो संक्षेप में इस प्रकार है इन बयालीस दोषों में सोलह दोष उद्गम सम्बन्धी, सोलह दोष उत्पादना सम्बन्धी एवं दस दोष एषणा सम्बन्धी माने जाते हैं। उद्गम के सोलह दोष उत् उपसर्ग पूर्वक गम धातु से उद्गम शब्द बना है जिसका अर्थ है उत्पन्न होना । तदनुसार जिन दोषों से आहार उद्गच्छति अर्थात उत्पन्न होता है वे उद्गम दोष हैं अथवा आहार पकाते समय या देते समय दाता के द्वारा जो दोष
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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